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जैन धर्म और दर्शन न कर्माऽविभागादिति चेन्नाऽनादित्वात् ॥ ३५ ॥ उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च ॥ ३६ ॥
-ब्रह्मसूत्र अ० २ पा० १ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ॥ २२ ॥
-ब. सू. अ. ४ पा०४
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७-कर्मबन्ध का कारण
जैन दर्शन में कर्मवन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण बतलाये गए हैं। इनका संक्षेप पिछले दो ( कषाय और योग ) कारणों में किया हुश्रा भी मिलता है । अधिक संक्षेप करके कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि कषाय ही कर्मबन्ध का कारण है। यों तो कषाय के विकार के अनेक प्रकार हैं पर, उन सबका संक्षेप में वर्गीकरण करके आध्यात्मिक विद्वानों ने उस के राग, द्वेष दो ही प्रकार किये हैं। कोई भी मानसिक विकार हो, या तो वह राग ( आसक्ति) रूप या द्वेष (ताप ) रूप है। यह भी अनुभव सिद्ध है कि साधारण प्राणियों की प्रवृत्ति, चाहे वह ऊपर से कैसी ही क्यों न दीख पड़े, पर वह या तो रागमूलक या द्वेषमूलक होती है। ऐसी प्रवृत्ति ही विविध वासनाओं का कारण होती है । प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी वासनात्मक सूक्ष्म सृष्टि का कारण, उसके राग और द्वेष ही होते हैं। मकड़ी, अपनी ही प्रवृत्ति से अपने किये हुए जाल में फँसती है। जीव भी कर्म के जाले को अपनी ही बे-समझी से रच लेता है । अज्ञान, मिथ्या-ज्ञान श्रादि जो कर्म के कारण कहे जाते हैं सो भी राग-द्वेष के संबन्ध ही से । राग की या द्वेष की मात्रा बढ़ी कि ज्ञान, विपरीत रूप में बदलने लगा। इससे शब्द भेद होने पर भी कर्मबन्ध के कारण के संबन्ध में अन्य आस्तिक दर्शनों के साथ, जैन दर्शन का कोई मतभेद नहीं। नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शन में मिथ्याज्ञान को, योगदर्शन में प्रकृतिपुरुष के अभेद ज्ञान को और वेदान्त आदि में अविद्या को तथा जैनदर्शन में मिथ्यात्व को कर्म का कारण बतलाया है, परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी को भी कर्म का कारण क्यों न कहा जाय, पर यदि उसमें कर्म की बन्धकता ( कर्म लेप पैदा करने की शक्ति ) है तो वह राग-द्वेष के संबन्ध ही से। राग-द्वेष की न्यूनता या अभाव होते ही अज्ञानपन ( मिथ्यात्व ) कम होता या नष्ट हो जाता है। महाभारत शान्तिपर्व के 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' इस कथन में भी कर्म शब्द का मतलब राग-द्वेष ही से है ।
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