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जैन धर्म और दर्शन घटित होता है, क्योंकि भावकर्म आत्मा का या जीव का-वैभाविक परिणाम है, इससे उसका उपादान रूप कर्ता, जीव ही है और द्रव्यकर्म, जो कि कार्मण-जाति के सूक्ष्म पुदगलों का विकार है उसका भी कर्ता, निमित्त रूप से जीव ही है । भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त । इस प्रकार उन दोनों का आपस में बीजाङ्कुर की तरह कार्य-कारण भाव संबन्ध है । ४-पुण्य-पाप की कसौटी ____ साधारण लोग कहा करते हैं कि 'दान, पूजन, सेवा आदि क्रियाओं के करने से शुभ कर्म का ( पुण्य का) बन्ध होता है और किसी को कष्ट पहुँचाने, इच्छा-विरुद्ध काम करने आदि से अशुभ कर्म का (पाप का ) बन्ध होता है। परन्तु पुण्य-पाप का निर्णय करने की मुख्य कसौटी यह नहीं है । क्योंकि किसी को कष्ट पहुँचाता हुआ और दूसरे की इच्छा-विरुद्ध काम करता हुआ भी मनुष्य, पुण्य उपार्जन कर सकता है। इसी तरह दान-पूजन आदि करने वाला भी पुण्य-उपार्जन न कर, कभी-कभी पाप बांध लेता है। एक परोपकारी चिकित्सक, जब किसी पर शस्त्रक्रिया करता है तब उस मरीज को कष्ट अवश्य होता है, हितैषी माता-पिता नासमझ लड़के को जब उसकी इच्छा के विरुद्ध पढ़ाने के लिए यत्न करते हैं तब उस बालक को दुःख सा मालूम पड़ता है; पर इतने ही से न तो वह चिकित्सक अनुचित काम करने वाला माना जाता है और न हितैषी माता-पिता ही दोषी समझे जाते हैं। इसके विपरीत जब कोई, भोले लोगों को ठगने के इरादे से या और किसी तुच्छ आशय से दान पूजन आदि क्रियाओं को करता है तब वह पुण्य के बदले पाप बाँधता है। अतएव पुण्यबन्ध या पाप-बन्ध की सच्ची कसौटी केवल ऊपर की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का श्राशय ही है। अच्छे श्राशय से जो काम किया जाता है वह पुण्य का निमित्त और बुरे अभिप्राय से जो काम किया जाता है वह पाप का निमित्त होता है। यह पुण्य-पाप की कसौटी सब को एक सी सम्मत है । क्योंकि यह सिद्धान्त सर्व-मान्य है कि
_ 'यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी।' ५-सच्ची निर्लेपता
साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम न करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप न लगेगा । इससे वे उस काम को तो छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती। इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य-पाप के
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