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आवश्यक क्रिया
१८५ है कि आजकल 'आवश्यक' शब्द का प्रयोग न करके सब कोई छहों आवश्यकों के लिए 'प्रतिक्रमण' शब्द काम में लाते हैं । इस तरह व्यवहार में और अर्वाचीन ग्रन्थों में 'प्रतिक्रमण' शब्द इस प्रकार से 'आवश्यक' शब्द का पर्याय हो गया है। प्राचीन ग्रन्थों में सामान्य 'श्रावश्यक' अर्थ में 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग कहीं देखने में नहीं आया । 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भ', 'प्रतिक्रमण विधि', 'धर्मसंग्रह' आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में 'प्रतिक्रमण' शब्द सामान्य 'श्रावश्यक' के अर्थ में प्रयुक्त है और सर्वसाधारण भी सामान्य 'श्रावश्यक' के अर्थ में प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग अस्खलित रूप से करते हुए देखे जाते हैं। 'प्रतिक्रमण' के अधिकारी और उसकी रीति पर विचार
इस जगह 'प्रतिक्रमण' शब्द का मतलब सामान्य 'आवश्यक' अर्थात् छुः 'आवश्यकों से है। यहाँ उसके संबन्ध में मुख्य दो प्रश्नों पर विचार करना है। (१) 'प्रतिक्रमण' के अधिकारी कौन हैं ? (२) 'प्रतिक्रमण'-विधान की जो रीति प्रचलित है, वह शास्त्रीय तथा युक्तिसंगत है या नहीं ? .. प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि साधु और श्रावक दोनों 'प्रतिक्रमण' के अधिकारी हैं; क्योंकि शास्त्र में साधु और श्रावक दोनों के लिए सायंकालीन और प्रातःकालीन अवश्य-कर्त्तव्य-रूप से 'प्रतिक्रमण' का विधान' है और अतिचार
आदि प्रसंगरूप कारण हो या नहीं, पर प्रथम और चरम तीर्थंकर के शासन में 'प्रतिक्रमण' सहित ही धर्म बतलाया गया है ।।
दूसरा प्रश्न साधु तथा श्रावक-दोनों के प्रतिक्रमण' रीति से संबन्ध रखता है। सब साधुओं को चारित्र-विषयक क्षयोपशम न्यूनाधिक भले ही हो, पर सामान्यरूप से वे सर्व विरतिवाले अर्थात् पञ्च महाव्रत को त्रिविध-त्रिविध-पूर्वक धारण करने वाले होते हैं। अतएव उन सबको अपने पञ्च महाव्रत में लगे हुए अतिचारों के संशोधन रूप से आलोचना या 'प्रतिक्रमण' नामक चौथा 'आवश्यक' समान रूप से करना चाहिए और उसके लिए सब साधनों को समान ही आलोचना सूत्र पढ़ना चाहिए, जैसा कि वे पढ़ते हैं। पर श्रावकों के संबंध में तर्क
१-समणेण सावएण य, अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा । अन्ते अहोणिसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ॥२॥
-आवश्यक-वृत्ति, पृष्ठ ५३ । २-सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स ! .. मझिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥१२४४॥
- ---श्रावश्यक-नियुक्ति ।
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