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.. कर्मवाद.
२१३ है वैसे ही उसके फल को भोगने में भी। कहा है कि-'यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः' ॥१॥ इसी प्रकार जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि का अधिष्ठाता भी नहीं मानता, क्योंकि उसके मत से सृष्टि अनादि अनन्त होने से वह कभी अपूर्व उत्पन्न नहीं हुई तथा वह स्वयं ही परिणमनशील है इसलिए ईश्वर के अधिष्ठान की आपेक्षा नहीं रखती । कर्मवाद पर होनेवाले मुख्य आक्षेप और उनका समाधान
ईश्वर को कर्त्ता या प्रेरक माननेवाले, कर्मवाद पर नीचे लिखे तीन आक्षेप करते हैं
[१] घड़ी, मकान आदि छोटी-मोटी चीजें यदि किसी व्यक्ति के द्वारा ही निर्मित होती हैं तो फिर सम्पूर्ण जगत् , जो कार्यरूप दिखाई देता है, उसका मी उत्पादक कोई अवश्य होना चाहिए ।
[२ ] सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, पर कोई बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से किसी चेतन की प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं। इसलिए कर्मवादियों को भी मानना चाहिए कि ईश्वर ही प्राणियों को कर्म-फल भोगवाता है।
[३] ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए कि जो सदा से मुक्त हो, और मुक्त जीवों की अपेक्षा भी जिसमें कुछ विशेषता हो । इसलिए कर्मवाद का यह मानना ठीक नहीं कि कर्म से छट जाने पर सभी जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं।
पहिले आक्षेप का समाधान-यह जगत् किसी समय नया नहीं बना, वह सदा ही से है। हाँ इसमें परिवर्तन हुआ करते हैं। अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं कि जिनके होने में मनुष्य आदि प्राणीवर्ग के प्रयत्न की अपेक्षा देखी जाती है तथा ऐसे परिवर्तन भी होते हैं कि जिनमें किसी के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती। वे जड़ तत्त्वों के तरह-तरह के संयोगों से-उष्णता, वेग, क्रिया
आदि शक्तियों से बनते रहते हैं। उदाहरणार्थ मिट्टी, पत्थर आदि चीजों के इकट्ठा होने से छोटे-मोटे टीले या पहाड़ का बन जाना; इधर-उधर से पानी का प्रवाह मिल जाने से उनका नदी रूप में बहना; भाप का पानी रूप में बरसना
और फिर से पानी का भाप रूप बन जाना इत्यादि । इसलिए ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानने की कोई जरूरत नहीं है।
दूसरे आक्षेप का समाधान-प्राणी जैसा कर्म करते हैं वैसा फल उनको कर्म द्वारा ही मिल जाता है । कर्म जड़ हैं और प्राणी अपने किये बुरे कर्म का फल
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