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जैन धर्म और दर्शन निवर्तक धर्मवादियों को मोक्ष के स्वरूप तथा उसके साधनों के विषय में तो ऊहापोह करना ही पड़ता था पर इसके साथ उनको कर्मतत्त्वों के विषय में भी बहुत विचार करना पड़ा । उन्होंने कर्म तथा उसके भेदों की परिभाषाएँ एवं व्याख्याएं स्थिर की। कार्य और कारण की दृष्टि से कर्मतत्त्व का विविध वर्गीकरण किया। कर्म की फलदान शक्तियों का विवेचन किया। जुदे-जुदे विपाकों की काल मर्यादाएँ सोची । कर्मों के पारस्परिक संबंध पर भी विचार किया। इस तरह निवर्तक धर्मवादियों का खासा कर्मतत्त्वविषयक शास्त्र व्यवस्थित हो गया और इसमें दिन प्रतिदिन नए-नए प्रश्नों और उनके उत्तरों के द्वारा अधिकाधिक विकास भी होता रहा । ये निवर्तक धर्मवादी जुदे-जुदे पक्ष अपने सुभीते के अनुसार जुदा-जुदा विचार करते रहे पर जबतक इन सब का संमिलित ध्येय प्रवर्तक धर्मवाद का खण्डन रहा तब तक उनमें विचार विनिमय भी होता रहा और उनमें एकवाक्यता भी रही। यही सबब है कि न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, जैन और बौद्ध दर्शन के कर्मविषयक साहित्य में परिभाषा, भाव, वर्गीकरण आदि का शब्दशः और अर्थशः साम्य बहुत कुछ देखने में आता है, जब कि उक्त दर्शनों का मौजूदा साहित्य उस समय की अधिकांश पैदाइश है जिस समय कि उक्त दर्शनों का परस्पर सद्भाव बहुत कुछ घट गया था। मोक्षवादियों के सामने एक जटिल समस्या पहले से यह थी कि एक तो पुराने बद्धकर्म ही अनन्त हैं, दूसरे उनका क्रमशः फल भोगने के समय प्रत्येकक्षण में नए-नए भी कर्म बंधते हैं, फिर इन सब कर्मों का सर्वथा उच्छेद कैसे संभव है, इस समस्या का हल भी मोक्षवादियों ने बड़ी खूबी से किया था। आज हम उक्त निवृत्तिवादी दर्शनों के साहित्य में उस हल का वर्णन संक्षेप या विस्तार से एक-सा पाते हैं। यह वस्तुस्थिति इतना सूचित करने के लिए पर्याप्त है कि कभी निवर्तकवादियों के भिन्नभिन्न पक्षों में खूब विचार विनिमय होता था। यह सब कुछ होते हुए भी धीरेधीरे ऐसा समय आ गया जब कि ये निवर्तकवादी पक्ष आपस में प्रथम जितने नजदीक न रहे। फिर भी हरएक पक्ष कर्मतत्त्व के विषय में ऊहापोह तो करता ही रहा । इस बीच में ऐसा भी हुआ कि किसी निवर्तकवादी पक्ष में एक खासा कर्मचिन्तक वर्ग ही स्थिर हो गया जो मोक्षसंबंधी प्रश्नों की अपेक्षा कर्म के विषय में ही गहरा विचार करता था और प्रधानतया उसी का अध्ययन-अध्यापन करता था जैसा कि अन्य-अन्य विषय के खास चिन्तक वर्ग अपने-अपने विषय में किया करते थे और आज भी करते हैं। वही मुख्यतया कर्मशास्त्र का चिन्तकवर्ग जैन दर्शन का कर्मशास्त्रानुयोगधर वर्ग या कर्मसिद्धान्तश वर्ग है ।
कर्म के बंधक कारणों तथा उसके उच्छेदक उपायों के बारे में तो सब
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