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भान मानकर ही उनमें प्रामाण्यका उपपादन करते हैं क्योंकि कुमारिलपरम्परामें प्रमाणलक्षणमें 'अपूर्व' पद होनेसे ऐसी कल्पना बिना किये 'धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्यका समर्थन किया नहीं जा सकता । इस पर बौद्ध और जैन कल्पनाकी छाप जान पड़ती है।
बौद्ध-परम्परामें यद्यपि धर्मोत्तर' ने स्पष्टतया 'धारावाहिक' का उल्लेख करके तो कुछ नहीं कहा है, फिर भी उसके सामान्य कथनसे उसका झुकाव 'धारावाहिक' को अप्रमाण माननेका ही जान पड़ता है। हेतुबिन्दुकी टीकामैं अर्चट ने 'धारावाहिक' के बिषयमें अपना मन्तव्य प्रसंगवश स्पष्ट बतलाया है। उसने योगिगत 'धारावाहिक' ज्ञानोंको तो 'सूक्ष्म कालकला' का भान मानकर प्रमाण कहा है । पर साधारण प्रमाताओंके धारावाहिकोंको सूक्ष्मकालभेदग्राहक न होनेसे अप्रमाण ही कहा है। इस तरह बौद्ध परम्परामें प्रमाताके भेद से 'धारावाहिक' के प्रामाण्य-अप्रामाण्यका स्वीकार है।
जैन तर्कग्रन्थों में 'धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्य-अप्रामाण्यके विषयमें दो परम्पराएँ हैं-दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय । दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'धारावाहिक' ज्ञान तभी प्रमाण हैं जब वे क्षणभेदादि विशेष का भान करते हों और विशिष्टप्रमाजनक होते हों। जब वे ऐसा न करते हों तब प्रमाण नहीं हैं। इसी तरह उस परम्पराके अनुसार यह भी समझना चाहिए कि विशिष्टप्रमाजनक होते हुए भी 'धारावाहिक' ज्ञान जिस द्रव्यांशमें विशिष्टप्रमाजनक नहीं हैं उस अंशमैं वे अप्रमाण और विशेषांशमें विशिष्टप्रमाजनक होनेके कारण प्रमाण हैं अर्थात् एक ज्ञान व्यक्तिमें भी विषय भेद की अपेक्षासे प्रामाण्या
१ 'अत एव अनधिगतविषयं प्रमाणम् । येनैव हि ज्ञानेन प्रथममधिगतोऽर्थः तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः तत्रैवार्थे किमन्येन ज्ञानेन अधिक कार्यम् । ततोऽधिगतविषयमप्रमाणम् ।'-न्यायबि० टी०. पृ० ३.
२ 'यदैकस्मिन्नेव नीलादिवस्तुनि धारावाहीनीन्द्रियज्ञानान्युत्पद्यन्ते तदा पूर्वेणाभिन्नयोगक्षेमत्वात् उत्तरेषामिन्द्रियशनानामप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम् , अतोऽनेकान्त इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह-पूर्वप्रत्यक्षक्षणेन इत्यादि । एतत् परिहरति-तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकदर्शिनोऽधिकृत्योच्यते तदा भिन्नो. पयोगितया पृथक् प्रामाण्यात् नानेकान्तः । अथ सर्वपदार्थेष्वेकत्वाध्यवसायिन: सांव्यवहारिकान् पुरुषानभिप्रेत्योच्यते तदा सकलमेव नीलसन्तानमेकमर्थ स्थिररूपं तत्साध्यां चार्थक्रियामेकात्मिकामध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमप्युत्तरेषामनिष्टमेवेति कुतोऽनेकान्तः १ -हेतु० टी० पृ० ३७,
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