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जान पड़ता है न्यायसूत्र की और प्रशस्तपाद की विरुद्ध विषयक विचारपरम्परा एक नहीं है।
न्यायप्रवेश (पृ०५) में विरुद्ध के चार भेद सोदाहरण बतलाए हैं। सम्भवतः माठर (का० ५) को भी वे ही अभिप्रेत हैं । न्यायबिन्दु (३.८३-८८) में विरुद्ध के प्रकार दो ही उदाहरणों में समाप्त किये गए हैं और तीसरे 'इष्टविघातकृत्' नामक अधिक भेद होने की आशङ्का (३.८६-६४) करके उसका समावेश अभिप्रेत दो भेदों में ही कर दिया गया है। इष्टविघातकृत् नाम न्यायप्रवेश में नहीं है पर उस नाम से जो उदाहरण न्यायबिन्दु ( ३.६०) में दिया गया है वह न्यायप्रवेश ( पृ०५) में वर्तमान है। जान पड़ता है न्यायप्रवेश में जो 'परार्थाः चक्षुरादयः' यह धर्म विशेषविरुद्ध का उदाहरण है उसी को कोई इष्टविघातकृत् नाम से व्यवहृत करते होंगे जिसका निर्देश करके धर्मकीर्ति ने अन्तर्भाव किया है। जयन्त ने (न्यायम० पृ० ६००-६०१) गौतमसूत्र की ही व्याख्या करते हुए धर्मविशेषविरुद्ध और धम्मिविशेषविरुद्ध इन दो तीर्थान्तरीय विरुद्ध भेदों का स्पष्ट खण्डन किया है जो न्यायप्रवेशवाली परम्परा का ही खण्डन जान पड़ता है। न्यायसार (पृ०६) में विरुद्ध के मेदों का वर्णन सबसे अधिक और जटिल भी है। उसमें सपक्ष के अस्तित्ववाले चार, नास्तित्ववाले चार ऐसे विरुद्ध के पाठ भेद जिन उदाहरणों के साथ हैं, उन उदाहरणों के साथ वही पाठ भेद प्रमाणनयतत्त्वालोक की व्याख्या में भी है (प्रमाणन० ६५२-५३) । यद्यपि परीक्षामुख की व्याख्या मार्तण्ड में ( पृ० १६२ A ) न्यायसारवाले वे ही आठ भेद हैं तथापि किसी-किसी उदाहरण में थोड़ा सा परिवर्तन हो गया है। श्रा. हेमचन्द्र ने तो प्रमाणनयतत्त्वालोक की व्याख्या की तरह अपनी वृत्ति में शब्दशः न्यायसार के पाठ भेद सोदाहरण बतलाकर उनमें से चार विरुद्धों को प्रसिद्ध एवं विरुद्ध दोनों नाम से व्यवहृत करने की न्यायमञ्जरी और न्यायसार की दलीलों को अपना लिया है।
प्रच्युतिरिति विरुद्धावेतौ धौं न सह सम्भवत इति । सोऽयं हेतुर्य सिद्धान्तमाश्रित्य प्रवर्तते तमेव व्याहन्ति इति ।'-न्ययभा० १. २. ६ । 'यो ह्यनुमेयेऽविद्यमानोऽपि तत्समानजातीये सर्वस्मिन्नास्ति तद्विपरीते चास्ति स विपरीतसाधनाद्विरुद्धः यथा यस्माद्विषाणी तस्मादश्व इति ।-प्रशस्त० पृ० २३८ ।
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