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सामिष-निरामिष-श्राहार मानव-स्वभाव के दो विरोधी पहलू । मनुष्य स्वभाव का एक पहलू तो यह है कि वर्तमान समय में जिस श्राचारविचार की प्रतिष्ठा बँधी हो और जिसका वह आत्यंतिक समर्थन करता हो उसके ही खिलाफ उसी के पूर्वजों के प्राचार-विचार यदि वह सुनता है या अपने इतिहास में से वैसी बात पाता है तो पुराने आचार-विचार के सूचक ऐतिहासिक दस्तावेज जैसे शास्त्रीय वाक्यों को भी तोड़-मरोड़ कर उनका अर्थ वर्तमान काल में प्रतिष्ठित ऐसे आचार-विचार की भूमिका पर करने का प्रयत्न करता है । वह चारों अोर उच्च और प्रतिष्ठित समझे जानेवाले अपने मौजूदा आचार-विचार से बिलकुल विरुद्ध ऐसे पूर्वजों के प्राचार-विचार को सुनकर या जानकर उन्हें न्यों-का-त्यों मानकर उनके और अपने बीच में आचार-विचार की खाई का अंतर समझने में तथा उनका वास्तविक समन्वय करने में असमर्थ होता है। यही कारण है कि वह पुराने आचार-विचार सूचक वाक्यों को अपने ही आचार-विचार के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न पूरे बल से करता है। यह हुआ मानव स्वभाव के पहलू का एक अन्त । ___ अब हम उसका दूसरा अन्त भी देखें । दूसरा अन्त ऐसा है कि वह वर्तमान आचार-विचार की भूमिका पर कायम रहते हुए भी उससे जुदी पड़नेवाली और कभी-कभी बिलकुल विरुद्ध जानेवाली पूर्वजों की प्राचार-विचार विषयक भूमिका को मान लेने में नहीं हिचकिचाता। इतिहास में पूर्वजों के भिन्न और विरुद्ध ऐसे आचार-विचारों की यदि नोंध रही तो उस नोंध को वह वफादारी से चिपके रहता है। ऐसा करने में वह अपने विरोधी पक्ष के द्वारा की जानेवाली निन्दा या आक्षेप की लेश भी परवाह नहीं करता। वह शास्त्र-वाक्यों के पुराने, प्रचलित और कभी सम्भावित ऐसे अर्थों का, प्रतिष्ठा जाने के डर से त्याग नहीं करता । वह भले ही कभी-कभी वर्तमान लोकमत के वश होकर उन वाक्यों का नया भी अर्थ करे तब भी वह अन्ततः विकल्प रूप से पुराने प्रचलित और कभी सम्भावित अर्थ को भी व्याख्याओं में सुरक्षित रखता है। यह हुआ मानव-स्वभाव के पहलू का दूसरा अन्त ।
ऐतिहासिक तुलना
उपर्युक्त दोनों अन्त बिलकुल आमने-सामने व परस्पर विरोधी हैं। इन दोनों अन्तों में से केवल जैन समाज ही नहीं बल्कि बौद्ध और वैदिक समाज भी गुजरे हुए देखे जाते हैं। जब भारत में अहिंसामूलक खान-पान की व्यापक और प्रबल प्रतिष्ठा जमी तब मांस-मत्स्य जैसी वस्तुओं का आत्यन्तिक विरोध न करनेवाले बौद्ध
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