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सामिष-निरामिष-श्राहार
८५ स्मृति,३° वीर मित्रोदय' तथा ब्रह्मपुराण ३२ में अन्यान्य वस्तुओं के साथ यज्ञीय गोवध, पशुवध तथा ब्राह्मण के हाथ से किया जाने वाला पशु मारण भी वर्ण्य बतलाया गया है। मनुस्मृति ३ तथा महाभारत: ४ में वह भी कहा गया है कि घृतमय या पिष्टमय अज श्रादि पशु से यज्ञ संपन्न करे पर वृथा पशुहिंसा न करे।
हिंसक यागसूचक वाक्यों का पुराना अर्थ ज्यों का त्यों मानकर उनका समर्थन करने वाली सनातनमानस मीमांसक परंपरा हो या उन वाक्यों का अर्थ बदलने वाली वैष्णव, आर्यसमाज आदि नई परम्परा हो पर वे दोनों परम्पराएँ बहुधा अपने जीवन-व्यवहार में माँस-मत्स्य आदि से परहेज करती ही हैं। दोनों का अन्तर मुख्यतया पुराने शास्त्रीय वाक्यों के अर्थ करने ही में है। सनानत-मानस और नवमानस ऐसी दो परम्पराओं की परस्पर विरोधी चर्चा का आपस में एक दूसरे पर भी असर देखा जाता है। उदाहरणार्थ हम वैष्णव परम्परा को लें। यद्यपि यह परम्परा मुख्यतया अहिंसक यागका ही पक्ष करती रही है फिर भी उसकी विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजीय शाखा और द्वैतवादी माध्वशाखा में बड़ा अन्तर है। माध्वशाखा अज का पिष्टमय अज ऐसा अर्थ करके ही धर्म्य प्राचारों का निर्वाह करती है जब कि रामानुज शाखा एकान्त रूप से वैसा मानने वाली नहीं है। रामानुज शाखा में तेंगलै और वडगलै जैसे दो भेद हैं। द्रविडियन तेंगलै शब्द का अर्थ है दाक्षिणात्य विद्या और वडगलै शब्द का अर्थ है संस्कृत विद्या । तेंगलै शाखा वाले रामानुजी किसी भी प्रकार के पशुवध से सम्मत नहीं। इसलिए वे स्वभाव से ही गो, अज आदि का अर्थ बदल देंगे या ऐसे यज्ञों को कलियुग वयं कोटि में डाल देंगे जब कि वडगलै शाखा वाले रामानुजी वैष्णव होते हुए भी हिंसक याग से सम्मत हैं। इस तरह हमने संक्षेप में देखा कि बौद्ध और वैदिक दोनों परम्पराओं में अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर माँस जैसी वस्तुओं की खाद्याखाद्यता का इतिहास अनेक क्रिया-प्रतिक्रियाओं से रंगा हुआ है।
'महाप्रस्थानगमनं गोसंज्ञप्तिश्च गोसवे ।
सौत्रामण्यामपि सुराग्रहणस्य च संग्रहः ॥' ३०-बृहन्नारदीय स्मृति अ० २२, श्लो० १२-१६ ३१-वीरमित्रोदय संस्कार प्रकरण पृ० ६६ ३२-स्मृतिचन्द्रिका संस्कार-काण्ड पृ० २८ ३३-मनुस्मृति-५,३७ ३४-अनुशासन पर्व १७७ श्लो० ५४
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