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रूप से सर्वत्र उस अर्थ में वाद शब्द का ही प्रयोग देखा जाता है। जन परम्परा कथा के जल और वितण्डा दो प्रकारों को प्रयोगयोग्य नहीं मानती ।अतएव उसके मत से वाद शब्द का वहीं अर्थ है जो वैद्यक परम्परा में सन्धायसम्भाषा शब्द का और न्याय परम्परा में वादकथा का है। बौद्ध तार्किकों ने भी आगे जाकर जल्प और वितण्डा कथा को त्याज्य बतलाकर केवल वादकथा को ही कर्तव्य रूप कहा है। श्रतएव इस पिछली बौद्ध मान्यता और जैन परम्परा के बीच वाद शब्द के अर्थ में कोई अन्तर नहीं रहता।
वैद्यकीय सन्धायसम्भाषा के अधिकारी को बतलाते हुए चरक ने महत्त्व का एक अनसूयक विशेषणा दिया है, जिसका अर्थ है कि वह अधिकारी असूयादोषमुक्त हो । अक्षपाद ने भी वादकथा के अधिकारियों के वर्णन में 'अनुसूयि' विशेषण दिया है । इससे सिद्ध है कि चरक और अक्षपाद दोनों के मत से वादकथा के अधिकारियों में कोई अन्तर नहीं। इसी भाव को पिछले नैयायिकों ने वाद का लक्षण करते हुए एक ही शब्द में व्यक्त कर दिया है कि-तत्त्वबुभुत्सुकथा वाद है (केशव० तकेभाषा पृ० १२६ )। चरक के कथनानुसार विगृह्यसम्भाषा के अधिकारी जय-पराजयेच्छु और छलबलसम्पन्न सिद्ध होते हैं, बायपरम्परा के अनुसार जल्प-वितण्डा के वैसे ही अधिकारी माने जाते हैं। इसी भाव को नैयायिक 'विजिगीषुकथा-जल्प-वितण्डा' इस लक्षणवाक्य से व्यक्त करते हैं । वाद के अधिकारी तत्त्वबुभुत्सु किस-किस गुण से युक्त होने चाहिए और वे किस तरह अपना वाद चलाएँ इसका बहुत ही मनोहर व समान वर्णन चरक तथा न्यायभाष्य श्रादि में है।
न्याय परम्परा में जल्पवितण्डा कथा करनेवाले को विजिगीष माना है जैसा कि चरक ने; पर वैसी कथा करते समय वह विजिगीष प्रतिवादी और अपने बीच किन-किन गुण-दोषों की तुलना करे, अपने श्रेष्ठ, कनिष्ठ या बराबरीवाले प्रतिवादी से किस-किस प्रकार की सभा और कैसे सभ्यों के बीच किस-किस प्रकार का बर्ताव करे, प्रतिवादी से अाटोप के साथ कैसे बोले, कभी कैसा झिड़के इत्यादि बातों का जैसा विस्तृत व आँखोंदेखा वर्णन चरक (पृ० २६४ ) ने किया है वैसा न्याय परम्परा के ग्रन्थों में नहीं है। चरक के इस वर्णन से कुछ मिलता-जुलता वर्णन जैनाचार्य सिद्धसेन ने अपनी एक वादोपनिषद्द्वात्रिंशिका में किया है, जिसे चरक के वर्णन के साथ पढ़ना चाहिए । बौद्ध परम्परा जब तक न्याय परम्परा की तरह जल्पकथा को भी मानती रही तब तक उसके अनुसार भी वाद के अधिकारी तत्त्वबुभुत्सु और जल्पादि के अधिकारी विजिगीषु ही फलित होते हैं, जैसा कि न्यायपरम्परा में । उस प्राचीन समय का
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