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भगवान् महावीर का जीवन
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कठिन आज के कत्लखानों में होने वाले पशुवध को बन्द कराना है। भगवान् ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन महान् सन्तों की तरह इस कठिन कार्य को करने में कोर-कसर उठा रखी न थी । उत्तराध्ययन के यज्ञीय अध्ययन में जो यज्ञीय हिंसा का श्रात्यन्तिक विरोध है वह भगवान् की धार्मिक प्रवृत्ति का सूचक है । यज्ञीय हिंसा का निषेध करने वाली भगवान् की धार्मिक प्रवृत्ति का महत्त्व और अगले जमाने पर पड़े हुए उसके असर को समझने के लिए जीवनी लिखने वाले को ऊपर सूचित वैदिक-ग्रन्थों का अध्ययन करना ही होगा।
धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मण आदि तीन वर्गों का आदर तो एक-सा ही था। तीनों वर्ण वाले यज्ञ के अधिकारी थे। इसलिए वर्ण की जुदाई होते हुए भी इनमें छुवाछुत का भाव न था पर विकट सवाल तो शूद्रों का था । धर्मक्षेत्र में प्रवेश की बात' तो दूर रही पर उनका दर्शच तक कैसा अमंगल माना जाता था, इसका वर्णन हमें पुराने ब्राह्मण-ग्रन्थों में स्पष्ट मिलता है। शूद्रों को अस्पृश्य मानने का भाव वैदिक परम्परा में इतना गहरा था कि धार्मिक पशुवध का भाव इतना गहरा न था । यही कारण है कि बुद्ध-महावीर जैसे सन्तों के प्रयत्नों से धार्मिक पशुवध तो बन्द हुया पर उनके हजार प्रयत्न करने पर भी अस्पृश्यता का भाव उसी पुराने युग की तरह आज भी मौजूद है । इतना ही नहीं बल्कि ब्राह्मण-परम्परा में रूढ़ हुए उस जातिगत अस्पृश्यता के भाव का खुद महावीर के अनुयायियों पर भी ऐसा असर पड़ा है कि वे भगवान् महावीर की महत्ता को तो अस्पृश्यता निवारण के धार्मिक प्रयत्न से आँकते और गाते हैं फिर भी वे खुद ही ब्राह्मण-परम्परा के प्रभाव में आकर शूद्रों की अस्पृश्यता को अपने जीवन-व्यवहार में स्थान दिए हुए हैं। ऐसी गहरी जड़वाले छुआ-छूत के भाव को दूर करने के लिए भगवान् ने निन्दा-स्तुति की परवाह बिना किए प्रबल पुरुषार्थ किया था और वह भी धार्मिक क्षेत्र में । ब्राह्मण-परम्परा अपने सर्वश्रेष्ठ यज्ञ-धर्म में शूद्रों का दर्शन तक सहन करती न थी तब बुद्ध श्रादि अन्य सन्तों की तरह महावीर चाण्डाल जैसे अति शूद्रों को भी अपने साधुसंघ में वैसा ही स्थान देते थे जैसा कि ब्राह्मण आदि अन्य वर्गों को। जैसे गांधीजी ने अस्पृश्यता को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए शूद्रों को धर्ममन्दिर में स्थान दिलाने का प्रयत्न किया है वैसे ही महावीर ने अस्पृश्यता को उखाड़ फेंकने के लिए शूद्रों को मूर्धन्यरूप अपने साधुसंघ में स्थान दिया था। महावीर के बाद ऐसे किसी जैन आचार्य या गृहस्थ का इतिहास नहीं मिलता कि जिसमें उसके द्वारा अति शूद्रों को साधु-संघ
१. शतपथ ब्राह्मण का० ३, अ० १ ब्रा० १ ।
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