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२२६ थी इसके सिवा उसमें शान', श्रद्धा, उदारता३, ब्रह्मचर्य आदि
पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥ एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।। ३ ॥ भाषांतर-(जो ) हजार सिरवाला, हजार आँखवाला, हजार पाँववाला पुरुष (है) वह भूमिको चारों ओर से घेर कर ( फिर भी) दस अंगुल बढ़ कर रहा है । १ । पुरुष ही यह सब कुछ है-जो भूत और जो भावि । (वह) अमृतत्व का ईश अन्न से बढ़ता है। २। इतनी इसकी महिमा-इससे भी वह पुरुष अधिकतर है। सारे भूत उसके एक पाद मात्र हैं-उसके अमर तीन पाद स्वर्ग में हैं । ३।
ऋग्वेद मं० १० सू० १२१हिरण्यगर्भः समवर्तता भूतस्य जातः पतिरेक प्रासीत् । स दाधार पृथिवी द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१॥ यात्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२।। · भाषांतर-पहले हिरण्यगर्भ था। वही एक भूत मात्रका पति बना था। उसने पृथ्वी और इस आकाश को धारण किया। किस देवको हम हवि से पूजें ? । १ । जो आत्मा और बलको देने वाला है । जिसका विश्व है। जिसके शासन की देव उपासना करते हैं। अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है । किस देव को हम हवि से पूर्जे १।२।।
ऋग्वेद मं० १०-१२६-६ तथा ७को श्रद्धा वेद क इह प्रवोचत कुत श्रा जाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत श्रा बभूव ।। इयं विसृष्टिर्यत श्रा बभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ।। भाषांतर--कौन जानता है--कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ? देव इसके विविध सर्जन के बाद (हुए) हैं। कौन जान सकता है कि यह कहां से आई और स्थिति में है या नहीं है ? यह बात परम व्योम में जो इसका अध्यक्ष है वही जाने-कदाचित् वह भी न जानता हो ।
१ ऋग्वेद मं० १० सू० ७१। २ ऋग्वेद मं० १० सू० १५१ । ३ ऋग्वेद मं० १० सू० ११७ । ४ ऋग्वेद मं० १० सू० १०॥
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