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गए हैं। महाभारतगत योग प्रकरण, योगसूत्र तथा जैन और बौद्ध योगग्रन्थ मानात्मवाद के आधार पर रचे गए हैं।
योग और उसके साहित्य के विकास का दिग्दर्शन -
श्रार्यसाहित्य का भाण्डागार मुख्यतया तीन भागों में विभक्त वैदिक, जैन और बौद्ध । वैदिक साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य है । तथापि उसमें श्राध्यात्मिक भाव अर्थात् परमात्म चिन्तन का अभाव नहीं है ' । परमात्मचिन्तन का भाग उसमें थोड़ा है सही पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यान पूर्वक देखने से यह साफ मालूम पड़ जाता है कि तत्कालीन लोगों की दृष्टि केवल बाह्य नर
१ देखो 'भागवताचा उपसंहार' पृष्ठ २५२ ।
२ उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैं---
ऋग्वेव मं० १ सू० १६४-४६
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णी गरुत्मान् ।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥
भाषांतर - लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण या अग्नि कहते हैं । वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है। एक ही सत् का विद्वान लोग अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं । कोई उसे अग्नि यम या वायु भी कहते हैं ।
ऋग्वेद मं० ६ सू० ६-
विमे कर्णो पतयतो विचक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय श्राहितं यत् ।
वि मे मनश्चरति दूर श्रधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मनिष्ये || ६ || विश्वे देवा नमस्यन् भियानास्त्वामग्ने ! तमसि तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽवतूतये नोऽमर्त्योऽवतूतये नः ॥ ७ ॥
भाषांतर - मेरे कान विविध प्रकार की प्रवृत्ति करते हैं । मेरे नेत्र, मेरे हृदय में स्थित ज्योंति और मेरा दूरवर्ती मन ( भी ) विविध प्रवृत्ति कर रहा है मैं क्या कहूँ और क्या विचार करूँ ? । ६ । अंधकार स्थित हे अग्नि ! तुझको अंधकार से भय पानेवाले देव नमस्कार करते हैं । वैश्वानर हमारा रक्षण करे । अमर्त्य हमारा रक्षण करे । ७ ।
पुरुषसूक्त मण्डल १० सू ६० ॠग्वेद
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सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्त्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १
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