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लिया हो इतने प्रसन्न होते हैं और कहते हैं कि पुराने गरु जन मिथ्याभाषी थोड़े हो सकते हैं ? मैं खुद मन्दमति हूँ उनका आशय नहीं समझता तो क्या हुआ ? ऐसा सोचने बालों को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते हैं कि वैसे लोग आत्मनाश की ओर ही दौड़ते हैं
विनिश्चयं नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति ।। ___ अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥ .
शास्त्र और पुराणों में दैवी चमत्कारों और असम्बद्ध घटनाओं को देख कर जब कोई उनकी समीक्षा करता है तब अन्धश्रद्धालु कह देते हैं, कि भाई ! हम ठहरे मनुष्य, और शास्त्र तो देव रचित हैं। फिर उनमें हमारी गति ही क्या ? इस सर्व सम्प्रदाय-साधारण अनुभव को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते हैं, कि हम जैसे मनुष्यरूपधारियों ने ही मनुष्यों के ही चरित, मनुष्य अधिकारी के ही निमित्त प्रथित किये हैं । वे परीक्षा में असमर्थ पुरुषों के लिए अपार और गहन भले ही हों पर कोई हृदयवान् विद्वान उन्हें अगाध मान कर कैसे मान लेगा? वह तो परीक्षापूर्वक ही उनका स्वीकार-अस्वीकार करेगा. मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षणैमनुष्यहेतोर्नियतानि तैः स्वयम् ।
अलब्धपाराण्यलसेषु कर्णवानगाधपाराणि कथं ग्रहीष्यति ।। (६. ७) हम सभी का यह अनुभव है कि कोई सुसंगत अद्यतन मानवकृति हुई तो उसे पुराणप्रेमी नहीं छुते जब कि वे किसी अस्त-व्यस्त और असंबद्ध तथा समझ में न पा सके ऐसे विचारवाले शास्त्र के प्राचीनों के द्वारा कहे जाने के कारण प्रशंसा करते नहीं अघाते। इस अनुभव के लिए दिवाकर इतना ही कहते हैं कि वह मात्र स्मृतिमोह है, उसमें कोई विवेकपटुता नहीं
यदेव किंचिद्विषमप्रकल्पितं पुरातनॆरुक्तमिति प्रशस्यते ।
विनिश्चिताऽप्यद्यमनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः ॥६-) हम अंत में इस परीक्षा-प्रधान बत्तीसीका एक ही पद्य भावसहित देते हैं
न गौरवाक्रान्तमतिर्विगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमर्थतः।
गुणावबोधप्रभवं हि गौरवं कुलांगनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ।। (६-२८) भाव यह है कि लोग किसी न किसी प्रकार के बड़प्पन के आवेश से, प्रस्तुत में क्या युक्त है और क्या प्रयुक्त है, इसे तत्त्वतः नहीं देखते। परन्तु सत्य बात तो यह है कि बड़प्पन गुणदृष्टि में ही है। इसके सिवाय का बड़प्पन निरा कुलांगना का चरित है । कोई अङ्गना मात्र अपने खानदान के नाम पर सवृत्त सिद्ध नहीं हो सकती।
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