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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत
ही समय के लिये हो, पार्श्वनाथ की परंपरा को स्वीकार किया था । अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपनी अन्तिम पुस्तक 'पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म' ( पृ० २४, २६ ) में ऐसी ही मान्यता सूचित की है ।
ने बुद्ध महावीर से प्रथम पैदा हुए और प्रथम ही निर्वाण प्राप्त किया । बुद्ध निग्रंथों के तप:प्रधान आचारों की अवहेलना ६ की है, और पूर्व- पूर्व गुरुत्रों की चर्या तथा तत्त्वज्ञान का मार्ग छोड़ कर अपने अनुभव से एक नए विशिष्ट मार्ग की स्थापना की है, गृहस्थ और त्यागी संघ का नया निर्माण किया है; जब कि महावीर ने ऐसा कुछ नहीं किया । महावीर का पितृधर्म पार्श्वापत्यिक निग्रंथों का है । उन्होंने कहीं भी उन निगंथों के मौलिक आचार एवं तत्त्वज्ञान की जरा भी अवहेलना नहीं की है; प्रत्युत निग्रंथों के परम्परागत उन्हीं श्राचार-विचारों को अपनाकर अपने जीवन के द्वारा उनका संशोधन, परिवर्धन एवं प्रचार किया है । इससे हमें मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि, महावीर पार्श्वनाथ की
अर्थ में ही प्रयुक्त देखे जाते हैं ( तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ६–१, २,; ८-१ ; स्थानांगसूत्र १ स्थान ; समवायांगसूत्र ५ समवाय; मज्झिमनिकाय २ ।
'उपोसथ' शब्द गृहस्थों के उपव्रत विशेष का बोधक है, जो पिटकों में ता है ( दीघनिकाय २६ ) । उसी का एक रूप पोसह या पोसघ भी हैं, जो आगमों में पहले ही से प्रयुक्त देखा जाता है ( उवासगदसानो ) ।
'सांवग' तथा 'उवासग' ये दोनों शब्द किसी-न-किसी रूप में पिटक ( दीर्घनिकाय ४ ) तथा श्रागमों में पहले ही से प्रचलित रहे हैं । यद्यपि बौद्ध परम्परा में 'सावग' का अर्थ है 'बुद्ध के साक्षात् भिक्षु-शिष्य' (मज्झिमनिकाय ३ ), जब कि जैन परम्परा में वह 'उपासक' की तरह गृहस्थ अनुयायी अर्थ में ही प्रचलित रहा है ।
कोई व्यक्ति गृहस्थाश्रम का त्याग कर भिक्षु बनता है तब उस अर्थ में एक वाक्य रूढ है, जो पिटक तथा श्रागम दोनों में पाया जाता है । वह वाक्य है “श्रृगारस्मा अनगारियं पव्वजन्ति" ( महावग्ग ), तथा " गारा अणगारियं
पव्वइत्तर " ( भगवती ११ - १२ - ४३१ ) ।
यहाँ केवल नमूने के तौर पर थोड़े से शब्दों की तुलना की है, पर इसके विस्तार के लिए और भी पर्याप्त गुंजाइश है । ऊपर सूचित शब्द और अर्थ का सादृश्य खासा पुराना है । वह अकस्मात् हो ही नहीं सकता । अतएव इसके मूल में कहीं-न-कहीं जाकर एकता खोजनी होगी, जो संभवतः पार्श्वनाथ की परम्परा का ही संकेत करती है ।
१६. मज्झिमनिकाय, महासिंहनादसुत्त ।
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