________________
२०४
हेत्वाभास की कल्पना और दूसरी यह कि न्यायप्रवेशगत विरुद्धाव्यभिचारी के उदाहरण से विभिन्न उदाहरण को लेकर विरुद्धाव्यभिचारी को संशयजनक मानने न मानने का शास्त्रार्थ । यह कहा नहीं जा सकता कि कणादसूत्र में अविद्यमान अनध्यवसित पद पहिले पहल प्रशस्तपाद ने ही प्रयुक्त किया या उसके पहिले भी इसका प्रयोग अलग हेत्वाभास अर्थ में रहा । न्यायप्रवेश में विरुद्धाव्यभिचारी का उदाहरण-नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववत्, अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत्' यह है, जब कि प्रशस्तपाद में उदाहरण'मनः मूर्त्तम् क्रियावत्त्वात्; मनः अमूर्त्तम् अस्पर्शवत्त्वात्'-यह है। प्रशस्तपाद का उदाहरण तो वैशेषिक प्रक्रिया अनुसार है ही, पर श्राश्चर्य की बात यह है कि बौद्ध न्यायप्रवेश का उदाहरण खुद बौद्ध प्रक्रिया के अनुसार न होकर एक तरह से वैदिक प्रक्रिया के अनुसार ही है क्योंकि जैसे वैशेषिक श्रादि वैदिक तार्किक शब्दत्व को जातिरूप मानते हैं वैसे बौद्ध तार्किक जाति को नित्य नहीं मानते । अस्तु, यह विवाद आगे भी चला।
तार्किकप्रवर धर्मकीर्ति ने हेत्वाभास की प्ररूपणा बौद्धसम्मत हेतुत्ररूप्य के' श्राधार पर की, जो उनके पूर्ववर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अभी तक देखने में नहीं आई। जान पड़ता है प्रशस्तपाद का अनैकान्तिक हेत्वाभास विषय बौद्ध मन्तव्य का खण्डन बराबर धर्मकीचि के ध्यान में रहा। उन्होंने प्रशस्तपाद को जवाब देकर न्यायप्रवेश का बचाव किया। धर्मकीर्चि ने व्यभिचार को अनेकान्तिकता का नियामकरूप न्यायसूत्र की तरह माना फिर भी उन्होंने न्यायप्रवेश
और प्रशस्तपाद की तरह संशयजनकत्व को भी उसका नियामक रूप मान लिया। प्रशस्तपाद ने न्यायप्रवेशसम्मत असाधारण को अनैकान्तिक मानने का यह कहकर के खण्डन किया था कि वह संशयजनक नहीं है। इसका जवाब धर्मकीर्ति ने असाधारण का न्यायप्रवेश की अपेक्षा जुदा उदाहरण रचकर और उसकी संशयजनकता दिखाकर, दिया और बतलाया कि असाधारण अनेकान्तिक हेत्वाभास ही है । इतना करके ही धर्मकीर्ति सन्तुष्ट न रहे पर अपने मान्य
१ 'तत्र त्रयाणां रूपाणामेकस्यापि रूपस्यानुत्तौ साधनाभासः। उक्तावप्यसिद्धौ सन्देहे वा प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोः । एकस्य रूपस्य'.. .. इत्यादि -न्यायबि० ३.५७ से।
२ 'अनयोरेव द्वयो रूपयोः संदेहेऽनैकान्तिकः । यथा सात्मकं जीयच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति ।......श्रत एवान्वयव्यतिरेकयो: संदेहादनकान्तिकः । साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात् ।'-न्यायबि० ३.६८-११० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org