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सांख्यका प्रत्यक्ष लक्षण
सांख्य परम्परामें प्रत्यक्ष लक्षणके मुख्य तीन प्रकार हैं। पहिला प्रकार विन्ध्यवासीके लक्षण का है जिसे वाचस्पतिने वार्षगण्यके नामसे निर्दिष्ट किया है ( तात्पर्य पृ० १५५)। दूसरा प्रकार ईश्वरकृष्ण के लक्षणका (सांख्यका ५) और तीसरा सांख्यसूत्रगत ( सांख्यसू० १.८६) लक्षणका है ।
बौद्धों, जैनों और नैयायिकोंने सांख्यके प्रत्यक्ष लक्षणका खण्डन किया है । ध्यान रखनेकी बात यह है कि विन्ध्यवासीके लक्षणका खण्डन तो सभीने किया है पर ईश्वरकृष्ण जैसे प्राचीन सांख्याचार्यके लक्षणका खण्डन सिर्फ जयन्त (पृ० ११६ ) ही ने किया है पर सांख्यसूत्रगत लक्षणका खण्डन तो किसी भी प्राचीन श्राचार्यने नहीं किया है।
बौद्धोंमें प्रथम खण्डनकार दिङ्नाग (प्रमाणसमु० १. २७), नैयायिकोंमें प्रथम खण्डनकार उद्योतकर (न्यायवा० पृ० ४३ ) और जनोंमें प्रथम खण्डनकार अकलङ्क ( न्यायवि० १. १६५) ही जान पड़ते हैं ।
श्रा० हेमचन्द्रने सांख्यके लक्षण खण्डनमें (प्र० मी० पृ०२४)पूर्वाचार्योंका अनुसरण किया है पर उनका खण्डन खासकर जयन्तकृत (न्यायम० पृ० १०६) खण्डनानुसारी है। जयन्तने ही विन्ध्यवासी और ईश्वरकृष्ण दोनोंके लक्षणप्रकारका खण्डन किया है, हेमचन्द्रने भी उन्हीं के शब्दोंमें दोनों ही के लक्षणका खण्डन किया है ।
ई० १६३६]
[प्रमाण मीमांसा
धारावाहिक ज्ञान
भारतीय प्रमाणशास्त्रों में 'स्मृति' के प्रामाण्य-अप्रामाण्यकी चर्चा प्रथमसे ही चली आती देखी जाती है पर धारावाहिक ज्ञानोंके प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा सम्भवतः बौद्ध परम्परासे धर्मकीर्तिके बाद दाखिल हुई। एक बार प्रमाणशास्त्रों में प्रवेश होनेके बाद तो फिर वह सर्वदर्शनव्यापी हो गई और इसके पक्षप्रतिपक्षमें युक्तियाँ तथा वाद स्थिर हो गए और खास-खास परम्पराएँ बन गई।
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