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सम्मत चतुरवयव कथनमें भ्रान्त नहीं हैं तो समझना चाहिए कि उनके सामने चतुरवयववादकी कोई मीमांसक परम्परा रही हो जिसका उन्होंने निर्देश किया है । नैयायिक पाँच अवयवोंका प्रयोग मानते हैं (१.१.३२) । बौद्ध तार्किक, अधिक से अधिक हेतु दृष्टान्त दो का ही प्रयोग मानते हैं (प्रमाणवा० १.२८; स्याद्वादर० पृ० ५५६) और कम से कम केवल हेतुका ही प्रयोग मानते हैं। (प्रमाणवा० १. २८) | इस नाना प्रकारके मतभेदके बीच जैन तार्किकने अपना मत, जैसा अन्यत्र भी देखा जाता है, वैसे ही अनेकान्त दृष्टिके अनुसार नियुक्तिकालसे' ही स्थिर किया है । दिगम्बर श्वेताम्बर सभी जैनाचार्य श्रवयवप्रयोग में किसी एक संख्याको न मानकर श्रोताकी न्यूनाधिक योग्यता के अनुसार न्यूनाधिक संख्याको मानते हैं ।
माणिक्यनन्दीने कमसे कम प्रतिज्ञा हेतु इम दो अवयवोंका प्रयोग स्वीकार करके विशिष्ट श्रोता की अपेक्षा से निगमन पर्यन्त पाँच अवययोंका भी प्रयोग स्वीकार किया है ( परी० ३. ३७-४६ ) । श्रा० हेमचन्द्र के प्रस्तुत सूत्रोंके और उनकी स्वोपज्ञ वृत्तिके शब्दोंसे भी माणिक्यनन्दी कृत सूत्र और उनकी प्रभाचन्द्र
दि कृत वृत्तिका ही उक्त भाव फलित होता है अर्थात् श्रा० हेमचन्द्र भी कम से कम प्रतिज्ञाहेतु रूप श्रवयवद्वयको ही स्वीकार करके श्रन्तमें पाँच अवयवको भी स्वीकार करते हैं; परन्तु वादिदेवका मन्तव्य इससे जुदा है । वादिदेव सूरिने अपनी स्वोपज्ञ व्याख्यामें श्रोताकी विचित्रता बतलाते हुए यहाँ तक मान लिया है कि विशिष्ट अधिकारीके वास्ते केवल हेतुका ही प्रयोग पर्याप्त है ( स्याद्वादर० पृ० ५४८), जैसा कि बौद्धोंने भी माना है | अधिकारी विशेष के वास्ते प्रतिज्ञा और हेतु दो, अन्यविध अधिकारीके वास्ते प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण तीम, इसी तरह अन्य वास्ते सोपनय चार, या सनिगमन पाँच श्रवयव का प्रयोग स्वीकार किया है ( स्याद्वादर० पृ० ५६४ ) |
इस जगह दिगम्बर परम्पराकी अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा की एक खास विशेषता ध्यान में रखनी चाहिए, जो ऐतिहासिक महत्त्व की है । वह यह है कि किसी भी दिगम्बर आचार्य ने उस अति प्राचीन भद्रबाहुकतृ के मानी जाने
१ 'जिणवयणं सिद्धं चैव भरणए कत्थई उदाहरणं । श्रसज्ज उ सोया ऊ विकहिञ्च भोज्जा || कत्थइ पञ्चावयवं दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं न य पुण सव्वं भाई हंदी सविश्रारमक्खायं ।' दश० नि० गा० ४६, ५० ।
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