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कि जैन दर्शन अपनी अनेकान्त प्रकृति के अनुसार फल- प्रमाणका भेदाभेद
बतलाता है' ।
फलके स्वरूपके विषय में वैशेषिक, नैयायिक और मीमांसक सभीका मन्तव्य एक-सा ही है । वे सभी इन्द्रियव्यापारके बाद होनेवाले सन्निकर्षसे लेकर हानोपादानोपेचाबुद्धि तकके क्रमिक फलोंकी परम्पराको फल कहते हुए भी उस परम्परामैंसे पूर्व पूर्व फलको उत्तर उत्तर फलकी अपेक्षा से प्रमाण भी कहते हैं अर्थात् उनके कथनानुसार इन्द्रिय तो प्रमाण ही है, फल नहीं और हानोपादानोपेक्षा बुद्धि जो अन्तिम फल है वह फल ही है प्रमाण नहीं | पर बीचके सन्निकर्ष, निर्विकल्प और सविकल्प ये तीनों पूर्व प्रमाणकी अपेक्षा से फल और उत्तरफल की अपेक्षा से प्रमाण भी हैं । इस मन्तव्यमें फल प्रमाण कहलाता है पर वह स्वभिन्न उत्तरफलकी अपेक्षा से । इस तरह इस मतमें प्रमाण - फलका भेद स्पष्ट ही है | वाचस्पति मिश्र ने इसी भेदको ध्यान में रखकर सांख्य प्रक्रियामें भी प्रमाण और फलकी व्यवस्था अपनी कौमुदीमें की है ।
५.
बौद्ध परम्परामै फलके स्वरूपके विषय में दो मन्तव्य हैं- पहला विषयाधिगम को और दूसरा स्वसंवित्तिको फल कहता है । यद्यपि दिङ्नागसंगृहीत इन दो मन्तव्यों से पहलेकाही कथन और विवरण धर्मकीत्तिं तथा उनके टीकाकार धर्मोत्तर ने किया है तथापि शान्तरक्षितने उन दोनों बौद्ध मन्तव्यों का संग्रह करनेके : अलावा उनका सयुक्तिक उपपादन और उनके पारस्परिक अन्तरका प्रतिपादन भी किया है । शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशीलने यह स्पष्ट बतलाया है कि बाह्यार्थवाद, जिसे पार्थसारथि मिश्र ने सौत्रान्तिकका कहा है उसके मतानुसार ज्ञानगत विषयसारूप्य प्रमाण है और विषयाधिगति फल, जब कि विज्ञानवाद जिसे पार्थसारथिने योगाचारका कहा है उसके मतानुसार ज्ञानमत
१ ' करणस्य क्रियायाश्च कथंचिदेकत्वं प्रदीप्रतमोविगमवत् नानात्वं च परश्वादिवत्'1- अष्टश० प्रष्टस० पृ० २८३-२८४
२ ' यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः, यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् |' - न्यायभा० १.१.३ । श्लोकवा० प्रत्यक्ष • श्लो० ५६-७३ । प्रकरण प० पृ० ६४ | कन्दली पृ० १६८-६ ।
३ सांख्यत० का ० ४ ।
४ प्रमाणसमु० १ १०-१२ । श्लो० न्याय० पृ० १५८ - १५६ / ५ न्यायवि० १. १८-१६ ।
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