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स्वसंवेदन ही फल है और ज्ञानगत तथाविध योग्यता ही प्रमाण है। यह ध्यान रहे कि बौद्ध मतानुसार प्रमाण और फल दोनों ज्ञानगत धर्म हैं और उनमै भेद न माने जानेके कारण वे अभिन्न कहे गए हैं। कुमारिल ने इस बौद्धसम्मत अभेदवादका खण्डन (श्लोकवा० प्रत्यक्ष० श्लो० ७४ से) करके जो वैशेषिक नैयायिकके भेदवादका अभिमतरूपसे स्थापन किया है उसका जवाब शान्तरक्षितने अक्षरशः देकर बौद्धसम्मत अभेदभावकी युक्तियुक्तता दिखाई है-(तत्वसं० का० १३४० से)। - जैन परम्परामें सबसे पहिले तार्किक सिद्धसेन और समन्तभद्र ही हैं जिन्होंने लौकिक दृष्टिसे भी प्रमाणके फलका विचार जैन परम्पराके अनुसार व्यवस्थित किया है। उक्त दोनों प्राचार्योका फलविषयक कथन शब्द और भावमें समान ही है-(न्याया० का० २८, प्राप्तमी० का० १०२)। दोनोंके कथनानुसार प्रमाणका साक्षात् फल तो अज्ञाननिवृत्ति ही है। पर व्यवहित फल यथासम्भव हानोपादानोपेक्षाबुद्धि है। सिद्धसेन और समन्तभद्रके कथन में तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं
१-अज्ञानविनाशका फलरूपसे उल्लेख, जिसका वैदिक-बौद्ध परम्परामें निर्देश नहीं देखा जाता । २-वैदिक परम्परामें जो मध्यवर्ती फलोंका सापेक्ष भावसे प्रमाण और फल रूपसे कथन है उसके उल्लेखका अभाव, जैसा कि बौद्ध तर्कग्रन्थोंमें भी है । ३-प्रमाण और फलके भेदाभेद विषयक कथनका अभाव । सिद्धसेन और समन्तभद्रके बाद अकलङ्क ही इस विषयमें मुख्य देखे जाते हैं जिन्होंने सिद्धसेन-समन्तभद्रदर्शितः फलविषयक जैन मन्तव्यका संग्रह करते हुए उसमें अनिर्दिष्ट दोनों अंशोकी स्पष्टतया पूर्ति की, अर्थात् अकलङ्कने प्रमाण और फलके भेदाभेदविषयक जैन मन्तव्यको स्पष्टतया कहा ( अष्टश० अष्टस० पृ० २८३-४ ) और मध्यवर्ती फलोंको प्रमाण तथा फल उभयरूप कहनेकी वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसककी सापेक्ष शैलीको जैन प्रक्रियाके अनुसार घटाकर उसका स्पष्ट निर्देश किया। माणिक्यनन्दी (परी० ५; १. से) और देवसूरिने (प्रमाणन० ६. ३ से) अपने-अपने सूत्रोंमें प्रमाणका फल बतलाते हुए सिर्फ वही बात कही
१ 'विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥'-तत्त्वसं० का० १३४४ | श्लो० न्याय० पृ० १५८-१५६।।
२ 'बहाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत् स्वसंविदाम् । पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फल स्यादुत्तरोत्तरम् ॥'-लघी० १. ६ ।
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