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६. दोषका निवारण - सिद्धसेनने परोक्षत्वको प्रत्यक्ष मात्रका साधारण लक्षण बनाया । पर उसमें एक त्रुटि है जो किसी भी सूक्ष्मप्रज्ञ तार्किकसे छिपी रह नहीं सकती । वह यह है कि अगर प्रत्यक्षका लक्षण अपरोक्ष है तो परोक्षका लक्षण क्या होगा ? अगर यह कहा जाय कि परोक्षका लक्षण प्रत्यक्ष भिन्नत्व या अप्रत्यक्षत्व है तो इसमें स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय है । जान पड़ता है इस दोषको दूर करनेका तथा अपरोक्षत्वके स्वरूपको स्फुट करनेका प्रयत्न सर्वप्रथम भट्टारक अकलङ्कने किया। उन्होंने बहुत ही प्राज्ञ्जल शब्दों में कह दिया कि जो ज्ञान विशद है वही प्रत्यक्ष हैं - ( लघी० १. ३ ) । उन्होंने इस वाक्य में साधारण लक्षण तो गर्भित किया ही पर साथ ही उक्त अन्योन्याश्रय दोषको भी टाल दिया । क्योंकि अब अपरोक्षपद ही निकल गया, जो परोक्षत्वके निर्वाचनको अपेक्षा रखता था । कलङ्क की लाक्षणिकताने, केवल इतना ही नहीं किया पर साथ ही वैशद्यका स्फोट भी कर दिया । वह स्फोट भी ऐसा कि जिससे सांव्यवहारिक पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्षका संग्रह हो । उन्होंने कहा कि अनुमानादिकी अपेक्षा विशेष प्रतिभास करना ही वैशय है- ( लघी० १. ४) । कलङ्कका यह साधारण लक्षणका प्रयत्न और स्फोट ही उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर - दिगम्बर तार्किकों के प्रत्यक्ष लक्षण में प्रतिबिम्बित हुआ । किसी ने विशद पदके स्थान में 'स्पष्ट’'पद (प्रमाणन०२. २) रखा तो किसीने उसी पदको ही रखा - ( परी २. ३ ) । • हेमचन्द्र जैसे अनेक स्थलोंमें कलङ्कानुगामी हैं वैसे ही प्रत्यक्ष के लक्षणके बारेमें भी अकलङ्कके ही अनुगामी हैं । यहाँ तक कि उन्होंने तो विशद पद और वैशद्यका विवरण अकलङ्कके समान ही रखा। अकलङ्ककी परिभाषा इतनी दृढमूल हो गई कि अन्तिम तार्किक उपाध्याय यशोविजयजीने भी प्रत्यक्ष के लक्षण में उसीका आश्रय किया - तर्कभाषा० पृ० १ ।
ई० १६३६ ]
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[ प्रमाण मीमांसा
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