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___ मैं समझता हूँ कि उक्त दोषको दूर करनेके अनेक उपायोंमेंसे एक उपाय यह भी है कि जहाँ दार्शनिक प्रमेयोंका अध्ययन तात्विक दृष्टि से किया जाए वहाँ साथ ही साथ वह अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे भी किया जाए । जब हम किसी भी एक दर्शनके प्रमेयोंका अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे करते हैं तब हमें अनेक दूसरे दर्शनोंके बारे में भी जानकारी प्राप्त करनी पड़ती है । वह जानकारी अधूरी या विपर्यस्त नहीं। पूरी और यथासम्भव यथार्थ जानकारी होते ही हमारा मानस व्यापक ज्ञानके आलोकसे भर जाता है । ज्ञानकी विशालता और स्पष्टता हमारी दृष्टिमेंसे संकुचितता तथा तज्जन्य भय श्रादि दोषोंको उसी तरह हटाती है जिस तरह प्रकाश तमको । हम असर्वज्ञ और अपूर्ण हैं, फिर भी अधिक सत्यके निकट पहुँचना चाहते हैं। अगर हम योगी नहीं हैं फिर भी अधिकाधिक सत्य तथा तत्त्व-दर्शनके अधिकारी बनना चाहते हैं तो हमारे वास्ते साधारण मार्ग यही है कि हम किसी भी दर्शनको यथासम्भव सर्वाङ्गीण ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे भी पढ़ें।
__ म्यायकुमुदचन्द्रके सम्पादक पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने मूल ग्रन्थके नीचे एक-एक छोटे-बड़े मुद्देपर जो बहुश्रुतत्वपूर्ण टिप्पण दिए हैं और प्रस्ता. वनामें जो अनेक सम्प्रदायोंके प्राचार्योंके ज्ञानमें एक दूसरेसे लेन-देनका ऐतेि. हासिक पर्यालोचन किया है, उन सबकी सार्थकता उपर्युक्त दृष्टि से अध्ययन करनेकराने में ही है। सारे न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पण तथा प्रस्तावनाका महेश अगर कार्य साधक है तो सर्व प्रथम अध्यापकोंके लिए। जैन हो या जैनेतर, सच्चा जिज्ञासु इस मेसे बहुत कुछ पा सकता है। अध्यापकोंकी दृष्टि एक बार साफ हुई, उनका अवलोकन प्रदेश एक बार विस्तृत हुआ, फिर वह सुवास विद्याथियोंमें तथा अपढ़ अनुयायियोंमें भी अपने-श्राप फैलने लगती है। इस भावी लाभको निश्चित प्राशासे देखा जाए तो मुझको यह कहनेमें लेश भी संकोच नहीं होता कि सम्पादकका टिप्पण तथा प्रस्तावना विषयक श्रम दार्शनिक अध्ययन क्षेत्रमें साम्प्रदायिकताकी संकुचित मनोवृत्ति दूर करने में बहुत कारगर सिद्ध होगा।
भारतवर्षको दर्शनोंकी जन्मस्थली और क्रीड़ाभूमि माना जाता है । यहाँका अपढ़जन भी ब्रह्मज्ञान, मोक्ष तथा अनेकान्त जैसे शब्दोंको पद-पदपर प्रयुक्त करता है, फिर भी भारतका दार्शनिक पौरुषशन्य क्यों हो गया है ? इसका विचार करना जरूरी है । हम देखते हैं कि दार्शनिक प्रदेशमें कुछ ऐसे दोष दाखिल हो गए हैं जिनकी ओर चिन्तकोंका ध्यान अवश्य जाना चाहिए। पहली बात दर्शनोंके पठन संबन्धी उद्देश्य की है। जिसे कोई दूसरा क्षेत्र न मिले और बुद्धिप्रधान आजीविका करभी हो तो बहुधा वह दर्शनोंकी ओर
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