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लाते हैं पर इन्द्रका अर्थ सुगत बतलाकर भी उस निरुक्तिको सङ्गत करनेका प्रयत्न करते हैं। जैन आचार्योंने इन्द्रपदका अर्थ मात्र जीव या श्रात्मा ही सामान्य रूपसे बतलाया है। उन्होंने बुद्धघोषकी तरह उस पदका स्वाभिप्रेत तीर्थङ्कर अर्थ नहीं किया है। न्याय-वैशेषिक जैसे ईश्वरकर्तृत्ववादी किसी वैदिक दर्शनके विद्वान्ने अपने ग्रन्थमें इस निरुक्तिको स्थान दिया होता तो शायद वह इन्द्रपदका ईश्वर अर्थ करके भी निरुक्ति सङ्गत करता।
सांख्यमतके अनुसार इन्द्रियोंका उपादानकारण अभिमान है जो प्रकृतिजन्य एक प्रकारका सूक्ष्म द्रव्य ही है-सांख्यका० २५ । यही मत वेदान्तको मान्य है । न्याय वैशेषिक मतके अनुसार (न्यायसू० १. १. १२) इन्द्रियोंका कारण पृथ्वी श्रादि भूतपञ्चक है जो जड़ द्रव्य ही है। यह मत पूर्वमीमांसकको भी अभीष्ट है । बौद्धमतके अनुसार प्रसिद्ध पाँच इन्द्रियाँ रूपजन्य होनेसे रूप ही हैं जो जड़ द्रव्यविशेष है। जैन दर्शन भी द्रव्य-स्थूल इन्द्रियोंके कारणरूपसे पुद्गलविशेषका ही निर्दश करता है जो जड़ द्रव्यविशेष ही है ।
कर्णशष्कुली, अक्षिगोलककृष्णासार, त्रिपुटिका, जिह्वा और चर्मरूप जिन बाह्य आकारोंको साधारण लोग अनुक्रमसे कर्ण, नेत्र, प्राण, रसन और स्वक् इन्द्रिय कहते हैं वे बाह्याकार सर्व दर्शनोंमें इन्द्रियाष्ठिान' ही माने गए हैंइंद्रियाँ नहीं । इंद्रियाँ तो उन अाकारोंमें स्थित अतींद्रिय वस्तुरूपसे मानी गई हैं, चाहे वे भौतिक हों या आहङ्कारिक । जैन दर्शन उन पौद्गलिक अधिष्ठानोंको द्रव्येन्द्रिय कहकर भी वही भाव सूचित करता है कि-अधिष्ठान वस्तुतः इंद्रियाँ नहीं हैं । जैन दर्शन के अनुसार भी इंद्रियाँ अतींद्रिय हैं पर वे भौतिक या श्राभिमानिक जड़ द्रव्य न होकर चेतनशक्तिविशेषरूप हैं जिन्हें जैन दर्शन भावेंद्रिय-मुख्य इंद्रिय-कहता है । मन नामक षष्ठ इन्द्रिय सब दर्शनों में अंतरिन्द्रिय या अंतःकरण रूपसे मानी गई है। इस तरह छः बुद्धि इन्द्रियाँ तो सर्व-दर्शन साधारण हैं पर सिर्फ सांख्यदर्शन ऐसा है जो वाक, पाणि, पादादि पाँच कमन्द्रियोंको भी इन्द्रियरूपसे गिनकर उनकी ग्यारह संख्या ( सांख्यका० २४ ) बतलाता है। जैसे वाचस्पति मिश्र और जयन्तने सांख्यपरिगणित कर्मेन्द्रियोंको इन्द्रिय माननेके विरुद्ध कहा है वैसे ही श्रा• हेमचंद्रने
१. न्यायम० पृ० ४७७ । २. तात्पर्य पृ० ५३१ । न्यायम० पृ० ४८३ ।
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