________________
मनोविचारणा
मनके स्वरूप, कारण, कार्य, धर्म और स्थान आदि अनेक विषयोंमें दार्शनिकोंका नानाविध मतभेद है जो संक्षेपमें इस प्रकार है । वैशेषिक (वै. सू० ७. १. २३), नैयायिक (न्यायसू० ३. २. ६१) और तदनुगामी पूर्वमीमांसक ( प्रकरणप० पृ० १५१) मनको परमाणुरूप अतएव नित्य-कारणरहित मानते हैं। सांख्य-योग और तदनुगामी वेदान्त उसे परमाणुरूप नहीं फिर भी अणुरूप और जन्य मानकर उसकी उत्पत्ति प्राकृतिक अहङ्कार तत्त्वसे' या अविद्यासे मानते हैं। बौद्ध और जैन परम्पराके अनुसार मन न तो व्यापक है और न परमाणुरूप । वे दोनों परम्पराएँ मनको मध्यम परिणामवाला और जन्य मानती हैं। बौद्ध परम्पराके अनुसार मन विज्ञानात्मक है और वह उत्तरवर्ती विज्ञानोंका समनन्तरकारण पूर्ववर्ती विज्ञानरूप है । जैन परम्पराके अनुसार पौद्गलिक मन तो एक खास प्रकारके सूक्ष्मतम मनोवर्गणा नामक जड़ द्रव्योंसे उत्पन्न होता है और वह प्रतिक्षण शरीरकी तरह परिवर्तन भी प्राप्त करता रहता है जब कि भावमन ज्ञानशक्ति और ज्ञानरूप होनेसे चेतनद्रव्यजन्य है। ___ सभी दर्शनोंके मतानुसार मनका कार्य इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख आदि गुणोंकी तथा उन गुणोंके अनुभवकी उत्पत्ति कराना है, चाहे वे गुण किसीके मतसे आत्मगन हों जैसे न्याय, वैशेषिक, मीमांसक, जैन श्रादिके मतसे; या
१. 'यस्मात् कर्मेन्द्रियाणि बुद्धिन्द्रियाणि च सात्विकादहंकारादुत्पद्यन्ते मनोऽपि तस्मादेव उत्पद्यते ।'-माठर का० २७ ।
२. 'विज्ञानं प्रतिविज्ञप्तिः मन श्रायतनं च तत् । षण्णामनन्तराऽतीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः ॥'-अभिधर्म. १. १६, १७ । तत्त्वसं० का०६३१ ।
३. 'यत् यत्समनन्तरनिरुद्धं विज्ञानं तत्तम्मनोधातुरिति । तद्यथा स एव पुत्रोऽन्यस्य पित्राख्यां लभते तदेव फलमन्यस्य बीजाख्याम् । तथेहापि स एव चक्षुरादिविज्ञानधातुरन्यस्याश्रय इति मनोधात्वाख्यां लभते । य एव षड़ विज्ञानधातव स एव मनोधातुः। य एव च मनोधातुस्त एव च षड् विज्ञानधातव इतीतरेतरान्तर्भावः........योगाचारदर्शनेन तु षड्विज्ञानव्यतिरिक्तोऽप्यस्ति मनोधातुः।' स्फुटा० पृ० ४०, ४१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org