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शब्द के बहुत नजदीक हैं अर्थात् वे सभी अर्थ भव्य अर्थ के भिन्न-भिन्न रूपान्तर हैं । विश्वके मौलिक पदार्थों के अर्थ में भी द्रव्य शब्द जैन दर्शन में पाया जाता है जैसे जीव, पुद्गल आदि छः द्रव्यं ।
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न्याय वैशेषिक आदि दर्शनों में (वै० सू० १. १. १५ ) द्रव्य शब्द गुणकर्माधार अर्थ में प्रसिद्ध है जैसे पृथ्वी जल आदि नव द्रव्य । इसी को लेकर भी उत्तराध्ययन ( २८.६ ) जैसे प्राचीन ग्रागममें द्रव्य शब्द जैन दर्शन सम्मत छः द्रव्योंमें लागू किया गया देखा जाता है । महाभाष्यकार पतञ्जलिने ( पात० महा० पृ० ५८ ) अनेक भिन्न-भिन्न स्थलोंमें द्रव्य शब्द के अर्थकी चर्चा की है । उन्होंने एक जगह कहा है कि घड़े को तोड़कर कुण्डी और कुण्डीको तोड़कर घड़ा बनाया जाता है एवं कटक कुंडल आदि भिन्न-भिन्न अलङ्कार एक दूसरेको तोड़कर एक दूसरे के बदले में बनाये जाते हैं फिर भी उन सब भिन्न-भिन्न कालीन भिन्न-भिन्न श्राकृतियों में जो मिट्टी या सुवर्ण नामक तत्त्व कायम रहता है वही अनेक भिन्न-भिन्न आकारोंमें स्थिर रहनेवाला तत्त्व द्रव्य कहलाता है । द्रव्य शब्द की यह व्याख्या योगसूत्र के व्यासभाष्य में ( ३. १३) भी ज्योंकी त्यों है और मीमांसक कुमारिलने भी वही ( श्लोकवा० वन० श्लो २१ - २२ ) व्याख्या ली है । पतञ्जलिने दूसरी जगह ( पात० महा० ४. १. ३; ५१. ११६) गुणसमुदाय या गुण सन्द्रावको द्रव्य कहा है । यह व्याख्या बौद्ध प्रक्रिया में विशेष सङ्गत है । जुदे जुदे गुणोंके प्रादुर्भाव होते रहनेपर भी अर्थात् जैन परिभाषा के अनुसार पर्यायोंके नवनवोत्पाद होते रहनेपर भी जिसके Arrant नाश नहीं होता वह द्रव्य ऐसी भी संक्षिप्त व्याख्या पतञ्जलि के महाभाष्य ( ५. १. ११९ ) में है । महाभाष्यप्रसिद्ध और बादके व्यासभाष्य, श्लोकवार्तिक आदिमें समर्थित द्रव्य शब्दकी उक्त सभी व्याख्याएँ जैन परम्परामें उमास्वातिके सूत्र और भाष्य में ( ५, २६, ३०, ३७ ) सबसे पहिले संग्रहीत देखी जाती हैं । जिनभद्र क्षमाश्रमणने तो ( विशेषा० गा० २८/ 1 अपने भाष्य में अपने समयतक प्रचलित सभी व्याख्याओंका संग्रह करके द्रव्य शब्दका निर्वचन बतलाया है ।
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कलङ्क ( लघी० २ १) ही शब्दों में विषयका स्वरूप बतलाते हुए ० हेमचन्द्र ने द्रव्यका प्रयोग करके उसका श्रागमप्रसिद्ध और व्याकरण तथा दर्शनान्तरसम्मत वभाव ( शाश्वत, स्थिर ) अर्थ ही बतलाया है । ऐसा अथ बतलाते समय उसकी जो व्युत्पत्ति दिखाई है वह कृत् प्रकरणानुसारी: अर्थात् दु धातु + य प्रत्यय जनित है प्र० मी० पृ० २४ ।
प्रमाणविषय के स्वरूपकथनमें द्रव्य के साथ पर्यायशब्दका भी प्रयोग है ।
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