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आगे बढ़ी। फलस्वरूप भिन्न-भिन्न प्राचार्योंने इस विषयमें अपना भिन्नभिन्न दृष्टिबिन्दु प्रकट किया और स्थापित भी किया' ।।
इस प्रसङ्गमें गुण और पर्याय शब्दके अर्थविषयक पारस्परिक भेदाभेदकी तरह पर्याय-गुण और द्रव्य इन दोनोंके पारस्परिक भेदाभेद विषयक दार्शनिक चर्चा जानने योग्य है। न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन भेदवादी होनेसे प्रथमसे ही आज तक गुण, कर्म आदिका द्रव्यसे भेद मानते हैं। अभेदवादी सांख्य, वेदान्तादि उनका द्रव्यसे अभेद मानते आये हैं। ये भेदाभेदके पक्ष बहुत पुराने हैं क्योंकि खुद महाभाष्यकार पतञ्जलि इस बारेमें मनोरंजक और विशद चर्चा शुरू करते हैं। वे प्रश्न उठाते हैं कि द्रव्य, शब्द, स्पर्श आदि गुण से अन्य है या अनन्य १। दोनों पक्षोंको स्पष्ट करके फिर वे अन्तमें भेदपक्षका समर्थन करते हैं। - जानने योग्य खास बात तो यह है कि गुण-द्रव्य या गुण-पर्यायके जिस भेदाभेदकी स्थापना एवं समर्थन के वास्ते सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन तार्किकोंने अपनी कृतियों में खासा पुरुषार्थ किया है उसी भेदाभेदवादका समर्थन मीमांसकधुरीण कुमारिलने भी बड़ी स्पष्टता एवं तर्कवादसे किया हैश्लोकवा० श्राकृ• श्लो० ४-६४, वन० श्लो० २१.८० ।
श्रा० हेमचन्द्रको द्रव्य-पर्यायका पारस्परिक भेदाभेद वाद ही सम्मत है जैसा अन्य जैनाचार्यों को। १६३६ ई० ]
[प्रमाण मीमांसा १ इस विषयके सभी प्रमाणके लिए देखो सन्मतिटी० पृ० ६३१. टि० ४ ।
२ 'किं पुनद्रव्यं के पुनर्गुणाः। शब्दस्पर्शरूपरसंगन्धा गुणास्ततोऽन्यद् द्रव्यम् । किं पुनरन्यच्छन्दादिभ्यो द्रव्यमाहोस्विदनन्यत् । गुणस्यायं भावात् द्रव्ये शब्दनिवेशं कुर्वन् ख्यापयत्यन्यच्छब्दादिभ्यो द्रव्यमिति । अनन्यच्छब्दादिभ्यो द्रव्यम् । न धन्यदुपलभ्यते। पशोः खल्वपि विशसितस्य पर्णशते न्यस्तस्य नान्यच्छब्दादिभ्य उपलभ्यते । अन्यच्छन्दादिभ्यो द्रव्यम् । तत् त्वनुमानगम्यम् । तद्यथा । श्रोषधिवनस्पतीनां वृद्धिह्रासौ। ज्योतिषां गतिरिति । कोसावनुमानः । इह समाने वर्मणि परिणाहे च अन्यत्तुलाग्रं भवति लोहस्य अन्यत् कार्पासानां यत्कृतो विशेषस्तद् द्रव्यम् । तथा कश्चिदेकेनैव प्रहारेण व्यपवर्ग करोति कश्चित् द्वाभ्यामपि न करोति । यतूकृतो विशेषस्तद् द्रव्यम् । अथवा यस्य गुणान्तरेष्वपि प्रादुर्भवत्सु तत्वं न विहन्यते तद् द्रव्यम् । किं पुनस्तत्त्वम् । तत्भावस्तत्त्वम् । तद्यथा । आमलकादिनां फलानां रक्तादयः पीतादयश्च गुणाः प्रादुर्भवन्ति । अामलकं बदरमित्येव भवति । अन्वर्थ खलु निर्वचनं गुणासंद्रावो द्रव्यमिति ।' -पात. महा० ५.१.११६ ।
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