________________
१३५.
भाष्य' जैसे प्रतिष्ठित जैन दार्शनिक ग्रन्थमें एक बार स्थान प्राप्त कर लेनेपर तो फिर वह निरुक्ति उत्तरवर्ती सभी बौद्ध-जैन महत्त्वपूर्ण दर्शन ग्रन्थोंका विषय बन गई है ।
इस इन्द्रिय पदकी निरुक्ति के इतिहासमें मुख्यतया दो बातें खास ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह कि बौद्ध वैयाकरण जो स्वतन्त्र हैं और जो पाणिनीय के व्याख्याकार हैं उन्होंने उस निरुक्तिको अपने-अपने ग्रन्थों में कुछ विस्तार से स्थान दिया है और श्रा० हेमचन्द्र जैसे स्वतन्त्र जैन वैयाकरणने भी अपने व्याकरणसूत्र तथा वृत्ति में पूरे विस्तारसे उसे स्थान दिया है। दूसरी बात यह कि पाणिनीय सूत्रों के बहुत ही अर्वाचीन व्याख्या -ग्रन्थोंके अलावा और किसी वैदिक दर्शन के ग्रन्थ में वह इन्द्रियपदकी निरुक्ति पाई नहीं जाती जैसी कि बौद्ध-जैन दर्शन ग्रन्थों में पाई जाती है । जान पड़ता है, जैसा अनेक स्थलों में हुआ है वैसे ही, इस संबन्ध में असल में शाब्दिकोंकी शब्दनिरुक्ति बौद्ध-जैन दर्शन ग्रन्थोंमें स्थान पाकर फिर वह दार्शनिकोंकी चिन्ताका विषय भी बन गई है ।
माठरवृत्ति जैसे प्राचीन वैदिक दर्शनग्रन्थ में इन्द्रिय पदकी निरुक्ति है पर वह पाणिनीय सूत्र और बौद्ध-जैन दर्शनग्रन्थों में लभ्य निरुक्तिसे बिलकुल भिन्न और विलक्षण है ।
जान पड़ता है पुराने समय में शब्दोंकी व्युत्पत्ति या निरुक्ति बतलाना यह एक ऐसा आवश्यक कर्तव्य समझा जाता था कि जिसकी उपेक्षा कोई बुद्धिमान् लेखक नहीं करता था । व्युत्पत्ति और निरुक्ति बतलाने में ग्रन्थकार अपनी स्वतन्त्र कल्पनाका भी पूरा उपयोग करते थे । यह वस्तुस्थिति केवल प्राकृतपालि शब्दोंतक ही परिमित न थी वह संस्कृत शब्दों में भी थी । इन्द्रियपदकी निरुक्ति इसीका एक उदाहरण है ।
मनोरञ्जक बात तो यह है कि शाब्दिक क्षेत्र से चलकर इन्द्रियपदकी निरुक्ति ने दार्शनिक क्षेत्रमें जब प्रवेश किया तभी उसपर दार्शनिक सम्प्रदायकी छाप लग गई । बुद्धघोष ' इन्द्रियपदकी निरुक्ति में और सब अर्थ पाणिनिकथित बत
१. ' तस्वार्थभा० २ १५ । सर्वार्थ १, १४ ।
२. 'इन्द्रियम् । ' - हैमश • ७. १. १७४ ।
३. 'इन् इति विषयाणां नाम, तानिनः विषयान् प्रति द्रवन्तीति इन्द्रि याणि । ' - माठर० का० २६ ।
४. देखो पृ० १३४. टिप्पणो २. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org