________________
१००
करना बतलाता है। जयराशिका उद्देश्य केवल खण्डनचातुरी बतलानेका या उसे दूसरोंको सिखानेका ही नहीं है बल्कि अपनी चार्वाक मान्यताका एक नया रूप प्रदर्शित करनेका भी है। इसके विपरीत हेतुविडम्बनोपायके रचयिताका उद्देश्य अपनी किसी परम्पराके स्वरूपका बतलाना नहीं है। उसका उद्देश्य सिर्फ यही बतलानेका है कि विवाद करते समय अगर प्रतिवादीको चुप करना हो तो उसके स्थापित पक्षमेंसे एक साध्य या हेतुवाक्यकी परीक्षा करके या उसका समूल खण्डन करके किस तरह उसे चुप किया जा सकता है ।
चार्वाक दर्शनमें प्रस्तुत ग्रन्थका स्थान प्रस्तुत ग्रन्थ चार्वाक संपदायका होनेसे इस जगह इस संम्प्रदायके संबन्धमें नीचे लिखी बाते ज्ञातव्य हैं।
(अ) चार्वाक संप्रदायका इतिहास (इ) भारतीय दर्शनोंमें उसका स्थान (उ) चार्वाक दर्शनका साहित्य
(अ) पुराने उपनिषदोंमें तथा सूत्रकृताङ्ग जैसे प्राचीन माने जानेवाले जैन आगममें भूतवादी या भूतचैतन्यवादी रूपसे चार्वाक मतका निर्देश है । पाणिनि के सूत्र में आनेवाला नास्तिक शब्द भी अनात्मवादी चार्वाक मतका ही सूचक है । बौद्ध दीघनिकायमें भी भूतवादी और अक्रियवादी रूपसे दो
१. ग्रन्थकार शुरूमें ही कहता है कि- "इह हि यः कश्चिद्विपश्चित् प्रच. एडप्रामाणिकप्रकाण्डश्रेणीशिरोमणीयमानः सर्वाङ्गीणानणीयः प्रमाणधोरणीप्रगुणीभवदखण्डपाण्डित्योड्डामरतां स्वात्मनि मन्यमानः स्वान्यानन्यतमसौजन्यधन्यत्रिभुवनमान्यवदान्यगणावगणनानुगुणानणुतत्तद्भणितिरणरणकररणनिस्समानाभिमानः अप्रतिहतप्रसरप्रवरनिरवद्यसद्यस्कानुमानपरम्परापराबोभवितनिस्तुषमनीषाविशेषोन्मिषन्मनीषिपरिषज्जाग्रत्प्रत्ययोदग्रमहीयोमहीयसन्मानः शतमखगुरुमुखाद्गविमुखताकारिहारिसर्वतोमुखशेमुषीमुखरासंख्यसंख्यावद्विख्याते पर्षदिदितसमग्रतर्ककर्कशवितर्कणप्रवणः प्रामाणिकग्रामणीः प्रमाणयति तस्याशयस्याहङ्कारप्राग्भारतिरस्काराय चारुविचारचातुरीगरीयश्चतुरनरचेतश्चमस्काराय च किञ्चिदुच्यते ।"
२. "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञा अस्तीति"-बृहदारण्यकोपनिषद्, ४, १२.
३. सूत्रकृताङ्ग, पृ. १४, २८१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org