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प्रकाश ही कहते हैं। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि कुमारिलने आत्माका स्वरूप श्रुतिसिद्ध ही माना है और श्रुतियों में स्वप्रकाशत्व स्पष्ट है अतएव शानका परोक्षत्व मानकर भी श्रात्माको स्वप्रत्यक्ष बिना माने उनकी दूसरी गति ही नहीं।
, परप्रत्यक्षवादी वे ही हो सकते हैं जो ज्ञानको श्रात्मासे भिन्न, पर उसका गुण मानते हैं-चाहे वह ज्ञान किसीके मतसे स्वप्रकाश हो जैसा प्रभाकरके मतसे, चाहे किसीके मतसे परप्रकारा हो जैसा नैयायिकादिके मतसे ।
प्रभाकरके मतानुसार प्रत्यत्त, अनुमिति आदि कोई भी संवित् हो पर उसमें प्रात्मा प्रत्यक्षरूपसे अवश्य भासित होता है। न्याय-वैशेषिक दर्शनमें मतभेद है। उसके अनुगामी प्राचीन हों या अर्वाचीन-सभी एक मतसे योगीकी अपेक्षा यात्माको परप्रत्यक्ष ही मानते हैं क्योंकि सबके मतानुसार योगज प्रत्यक्षके द्वारा श्रात्माका साक्षात्कार होता है। पर अस्मदादि अर्वाग्दीकी अपेक्षा उनमें मतभेद है। प्राचीन नैयायिक और वैशेषिक विद्वान् अर्वाग्दीके अात्माको प्रत्यक्ष न मानकर अनुमेय मानते हैं, जब कि पीछेके न्याय-वैशेषिक विद्वान् श्रर्वाग्दी अात्माको भी उसके मानस-प्रत्यक्षका विषय मानकर परप्रत्यक्ष बतलाते हैं। . ज्ञानको श्रात्मासे भिन्न माननेवाले सभीके मतसे यह बात फलित होती है कि मुक्तावस्थामें योगजन्य या और किसी प्रकारका ज्ञान न रहनेके कारण श्रात्मा न तो साक्षात्कर्ता है और न साक्षात्कारका विषय । इस विषयमें दार्शनिक कल्पनाओंका राज्य अनेकधा विस्तृत है पर वह यहाँ प्रस्तुत नहीं । ई. १६३६]
[प्रमाण मीमांसा
१. 'श्रात्मनैव प्रकाश्योऽयमात्मा ज्योतिरितीरितम' -श्लोकवा० आत्मवाद श्लो० १४२ ।
२. 'युञ्जानस्य योगसमाधिजमात्ममनसोः संयोगविशेषादात्मा प्रत्यक्ष इति ।' -न्यायभा० १. १.३ । 'अात्मन्यात्ममनसोः संयोगविशेषाद् अात्मप्रत्यक्षम्-वैशे०६. १. ११ ।
३. 'अारमा तावत्प्रत्यक्षतो गृह्यते' -न्यायभा० १. १. १०। 'तत्रात्मा मनश्वाप्रत्यक्षे' -वैशे० ८. १. २ । . ४. 'तदेवमहंप्रत्ययविषयत्वादात्मा तावत् प्रत्यक्षः' -न्यायवा० पृ० ३४२ । 'अहंकारस्याश्रयोऽयं मनोमात्रस्य गोचरः'-कारिकावली ५५ ।
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