________________
११९ "विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥"
-तत्त्वसं. का. १३४४ । इसमें भी दो बातें खास ध्यान देने की हैं
१-अभी तक अन्य परम्पराओंमें स्थान नहीं प्राप्त 'स्वसंवेदन' विचारका प्रवेश और तद्द्वारा ज्ञानसामान्यमें स्व-परप्रकाशत्वकी सूचना । ___ असङ्ग और वसुबन्धुने विज्ञानवाद स्थापित किया। पर दिङ्नागने उसका समर्थन बड़े जोरोंसे किया। उस विज्ञानवादकी स्थापना और समर्थन-पद्धतिमें ही स्वसंविदितत्व या स्वप्रकाशस्वका सिद्धान्त स्फुटतर हुआ जिसका एक या दूसरे रूपमें अन्य दार्शनिकोंपर भी प्रभाव पड़ा-देखो Buddhist Logic vol. I. P. 12.
२-मीमांसककी त { स्पष्ट रूपसे अनधिगतार्थक ज्ञानका ही प्रामाण्य ।।
श्वेताम्बर दिगम्बर ।नों जैन परम्पराओं के प्रथम तार्किक सिद्धसेन और समन्तभद्रने अपने-अपने लक्षण में स्व-परप्रकाशार्थक 'स्व-परावभासक' विशेषणका समानरूपसे निवेश किया है । सिद्धसेन के लक्षणमें 'बाधविवर्जित' पद उसी अर्थमें है जिस अर्थमें मीमांसकका 'बाधवर्जित' या धर्मकीर्तिका 'अविसंवादि' पद है। जैन न्यायके प्रस्थापक अकलंकनेकहीं 'अनधिगतार्थक' और 'अविसंवादि' दोनों विशेषणोंका प्रवेश किया और कहीं 'स्वपरावभासक' विशेषणका भी समर्थन किया है । अकलंक के अनुगामी माणिक्यनन्दी ने एक ही वाक्यमें 'स्व' तथा 'अपूर्वार्थ पद दाखिल करके सिद्धसेन-समन्तभद्रकी स्थापित और अकलंकके द्वारा विकसित जैन पर
१. 'प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।' -न्याया० १. 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।' -अआप्तमी० १०१. 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्'-बृ० स्वयं० ६३. . ____२. 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् , अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।'अष्टश० अष्टस• पृ० १७५. उक्तं च-'सिद्धं यन्न परापेक्षं सिद्धौ स्वंपररूपयोः । तत् प्रमाणं ततो नान्यदविकल्पमचेतनम् ।' न्यायवि. टी. पृ० ६३. उक्त कारिका सिद्धिविनिश्चय की है जो अकलंक को ही कृति है।।
३. 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।' -परी० १.१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org