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कि शान्तरक्षितने प्रथम धर्मज्ञत्व सिद्ध कर गौणरूपसे सर्वज्ञवको भी स्वीकार' किया है।
सर्वज्ञवादकी परम्पराका अवलम्बी मुख्यतया जैन सम्प्रदाय ही जान पड़ता है क्योंकि जैन श्राचार्यों ने प्रथमसे ही अपने तीर्थंकरोंमें सर्वज्ञत्वको माना और स्थापित किया है । ऐसा सम्भव है कि जब जैनोंके द्वारा प्रबल रूपसे सर्वशत्वकी स्थापना और प्रतिष्ठा होने लगी तब बौद्धोंके वास्ते बुद्ध में सर्वज्ञत्वका समर्थन करना भी अनिवार्य और आवश्यक हो गया । यही सबब है कि बौद्ध तार्किक ग्रन्थोंमें धर्मशवादसमर्थनके बाद सर्वज्ञवादका समर्थन होने पर भी उसमें वह जोर और एकतानता नहीं है, जैसी कि जैन तार्किक ग्रन्थों में है।
मीमांसक ( श्लो० सू० २. श्लो० ११०-१४३. तस्वसं० का० ३१२४-३२४६ पूर्वपक्ष) का मानना है कि यागादिके प्रतिपादन और उसके द्वारा धर्माधर्मादिका, किसी पुरुषविशेष की अपेक्षा रखे बिना ही, स्वतन्त्र विधान करना यही वेदका कार्य है। इसी सिद्धान्तको स्थिर रखनेके वास्ते कुमारिलने कहा है कि कोई भले ही धर्माधर्म-भिन्न अन्य
१. 'स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञाऽपि प्रतीयते ॥'-तस्वसं० का० ३३०६ । 'मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुज्ञत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिज्ञातृत्वसाधनमस्य तत् प्रासंगिकमन्यत्रापि भगवतो ज्ञानप्रवृत्तेः बाधकप्रमाणाभावात् साक्षादशेषार्थपरिज्ञानात् सर्वज्ञो भवन् न केनचिद् बाध्यते इति, अतो न प्रेक्षावतां तत्प्रतिक्षेपो युक्तः।'-तत्त्वसं०प० पृ०८६३ ।।
२. 'से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुया. सुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ, तं० श्रागई गई ठिइं चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं श्राविकम्मं रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ ।' आचा० श्रु० २. चू० ३. पृ. ४२५ A. 'तं नस्थि जं न पासह भूयं भव्वं भविस्सं च'-श्राव. नि. गा० १२७ । भग० श० ६. उ. ३२ । 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वशसंस्थितिः ॥'प्राप्तमी० का० ५।
३. 'यैः स्वेच्छासर्वशो वर्ण्यते तन्मतेनाप्यसौ न विरुध्यते इत्यादर्शयन्नाह यद्यदित्यादि-यद्यदिच्छति बोर्बु वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः । शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ ॥'-तत्त्वसं० का० ३६२८ । मिलि. ३. ६.२।
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