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नहीं क्योंकि न्याय वैशेषिकके अनुसार तो परका अर्थ है अनुव्यवसाय जिसके द्वारा पूर्ववर्ती कोई भी ज्ञानव्यक्ति प्रत्यक्षतया गृहीत होती है परन्तु सांख्य योगके अनुसार पर शब्दका अर्थ है. चैतन्य जो पुरुषका सहज स्वरूप है और जिसके द्वारा ज्ञानात्मक सभी बुद्धिवृत्तियाँ प्रत्यक्षतया भासित होती हैं। . . . परानुमेय अर्थमें परप्रकाशवादी केवल कुमारिल हैं जो ज्ञानको स्वभावसे ही परोक्ष मानकर उसका तज्जन्यजाततारूप लिङ्गके द्वारा अनुमान मानते हैं जो अनुमान कार्यहेतुक कारणविषयक है-शास्त्रदी०पृ० १५७ । कुमारिलके सिवाय और कोई ज्ञानको अत्यन्त परोक्ष नहीं मानता । प्रभाकरके मतानुसार जो फलसंविलिसे ज्ञानका अनुमान माना जाता है वह कुमारिल-सम्मत प्राकटयरूप फलसे होनेवाले ज्ञानानुमानसे बिलकुल जुदा है। कुमारिल तो प्राकट थसे ज्ञान, जो अात्मसमवेत गुण है उसका अनुमान मानते हैं जब कि प्रभाकरमतानुसार संविद्प फलसे अनुमित होनेवाला ज्ञान वस्तुतः गुण नहीं किन्तु ज्ञानगुणजनक सन्निकर्ष श्रादि जड सामग्री ही है। इस सामग्री रूप अर्थ में ज्ञान शब्दके प्रयोगका समर्थन करणार्थक 'अन्' प्रत्यय मान कर किया जाता है।
श्राचार्य हेमचन्द्र ने जैन परम्परासम्मत ज्ञानमात्रके प्रत्यक्षत्व स्वभावका सिद्धान्त मानकर ही उसका स्वनिर्णयत्व स्थापित किया है और उपर्युक्त द्विविध परप्रकाशवका प्रतिवाद किया है। इनके स्वपक्षस्थापन और परपक्ष-निरासकी दलीलें तथा प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमाणका उपन्यास यह सब वैसा ही है जैसा शालिकनाथकी प्रकरणपञ्चिका तथा श्रीभाष्य आदिमें है । स्वपक्षके ऊपर औरोंके द्वारा उद्भावित दोषोंका परिहार भी प्राचार्यका वैसा ही है जैसा उक्त ग्रन्थोंमें है। ई. १६३६ ]
[प्रमाण मीमांसा
१ संविदुत्पत्तिकारणमात्ममनःसन्निकर्षाख्यं तदित्यवगम्य परितुष्यतामायुष्मता"-प्रकरणप० पृ० ६३ ।
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