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विषय परिचय
प्रस्तुत ग्रन्थमें किस-किस विषयकी चर्चा है और वह किस प्रकार की गई है। इसका संक्षिप्त परिचय प्राप्त करनेके लिए नीचे लिखी बातों पर थोड़ासा प्रकाश डालना जरूरी है ।
( १ ) ग्रन्थकारका उद्देश्य और उसकी सिद्धिके वास्ते उसके द्वारा श्रवलंबित मार्ग ।
(२) किन-किन दर्शनोंके और किन-किन प्राचार्योंके सम्मत प्रमाणलक्षणोंका खण्डनीय रूपसे निर्देश है ।
( ३ ) किन-किन दर्शनोंके कौन-कौनसे प्रमेयोंका प्रासंगिक खण्डनके वास्ते निर्देश है ।
(४) पूर्वकालीन और समकालीन किन-किन विद्वानोंकी कृतियोंसे खण्डनसामग्री ली हुई जान पड़ती है ।
(५) उस खण्डन - सामग्रीका अपने अभिप्रतकी सिद्धिमें ग्रन्थकारने किस तरह उपयोग किया है ।
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(१) हम पहले ही कह चुके हैं कि ग्रन्थकारका उद्देश्य, समग्र दर्शनोंकी छोटी-बड़ी सभी मान्यताओं का एकमात्र खण्डन करना है । ग्रन्थकारने यह सोचकर कि सब दर्शनोंके श्रभिमत समग्र तत्वोंका एक-एक करके खण्डन करना संभव नहीं; तब यह विचार किया होगा कि ऐसा कौन मार्ग है जिसका सरलता से अवलम्बन हो सके और जिसके अवलम्बनसे समग्र तत्त्वोंका खण्डन आप ही आप सिद्ध हो जाए । इस विचारमेंसे ग्रन्थकारको अपने उद्देश्यकी सिद्धिका एक श्रमोघ मार्ग सूझ पड़ा, और वह यह कि अन्य सब बातोंक खण्डनकी ओर मुख्य लक्ष्य न देकर केवल प्रमाणखण्डन हो किया जाए, जिससे प्रमाणके श्राधारसे सिद्ध किये जानेवाले अन्य सब तत्त्व या प्रमेय अपने आप ही खण्डित हो सकें । जान पड़ता है ग्रन्थकारके मनमें जब यह निर्णय स्थिर बन गया तब फिर उसने सब दर्शनोंके अभिमत प्रमाणलक्षणों के खण्डनकी तैयारी की । ग्रन्थके प्रारम्भ में ही वह अपने इस भावको स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करता है । वह सभी प्रमाण प्रमेयवादी दार्शनिकोंको ललकार कर कहता है ' कि- 'आप लोग जो प्रमाण और प्रमेयकी व्यवस्था मानते हैं उसका
१. 'अथ कथं तानि न सन्ति १ तदुच्यते – सल्लक्षणनिबन्धनै मानव्यवस्थानम्, माननिबन्धना च मेयस्थितिः, तदभावे तयोः सद्व्यवहारविषयत्वं कथम् ?........इत्यादि । तत्वोपप्लव, पृ० १. ।
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