________________
८.
उपयोग सन्मतितर्ककी टीकामें भी हुश्रा है। हमने वे दोनों ग्रन्थ किसी तरह उस भण्डारके व्यवस्थापकोंसे प्राप्त किए। उनमेंसे एक तो था बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दुशास्त्रका अर्चटकृत विवरण । और दूसरा ग्रन्थ था प्रस्तुत तस्वोपल्पवसिंह । अपनी विशिष्टता तथा पिछले साहित्य पर पड़े हुए इनके प्रभावके कारण, उक्त दोनों ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण तो थे ही, पर उनकी लिखित प्रति अन्यत्र कहीं भी ज्ञात न होनेके कारण वे ग्रन्थ और भी अधिक विशिष्ट महत्त्ववाले हमें मालूम हुए । ___उक्त दोनों ग्रन्थोंकी ताडपत्रीय प्रतियाँ यद्यपि यत्र-तत्र खण्डित और कहीं कहीं घिसे हुए अक्षरोंवाली हैं, फिर भी ये शुद्ध और प्राचीन रही। तत्त्वोपल्पवकी इस प्रतिका लेखन-समय वि० सं० १३४६ मार्गशीर्ष कृष्ण ११ शनिवार है। यह प्रति गुजरातके धोलका नगरमें, महं० नरपालके द्वारा लिखवाई गई है। घोलका, गुजरातमें उस समय पाटणके बाद दूसरी राजधानीका स्थान था, जिसमें अनेक ग्रन्थ भण्डार बने थे और सुरक्षित थे । धोलका वह स्थान है जहाँ रह कर प्रसिद्ध मन्त्री वस्तुपालने सारे गुजरातका शासन-तंत्र चलाया । था । सम्भव है कि इस प्रतिका लिखानेवाला महं० नरपाल शायद मंत्री वस्तुपाल का ही कोई वंशज हो। अस्तु, जो कुछ हो, तत्त्वोपप्लवकी इस उपलब्ध ताडपत्रीय प्रतिको अनेक बार पढ़ने, इसके घिसे हुए तथा लुप्त अक्षरोंको पूरा करने आदिका श्रमसाध्य कार्य अनेक सहृदय विद्वानोंकी मददसे चालू रहा, जिनमें भारतीय विद्याके सम्पादक मुनिश्री जिनविजयी, प्रो० रसिकलाल परीख तथा पं० दलसुख मालवणिया मुख्य हैं।
इस ताड़पत्रकी प्रतिके प्रथम वाचनसे ले कर इस ग्रन्थके छप जाने तकमें जो कुछ अध्ययन और चिन्तन इस सम्बन्धमें हुअा है उसका सार 'भारतीय विद्या के पाठकोंके लिए प्रस्तुत लेखके द्वारा उपस्थित किया जाता है । इस लेखका वर्तमान स्वरूप पं०दलसुख मालवणियाके सौहार्दपूर्ण सहयोगका फल है। ग्रन्थकार
प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिताका नाम, जैसा कि ग्रन्थके अन्तिम प्रशस्तिपद्यमें ।
१. गायकवाड़ सिरीजमें यह भी प्रकाशित हो गया है । २. भदृश्रीजयराशिदेवगुरुभिः सृष्टो महार्थोदयः । __तत्वोपल्पवसिंह एष इति यः ख्याति परां यास्यति ॥ तत्त्वो०, पृ० १२५
"तखोपप्लवकरणाद जयराशिः सौगतमतमवलम्ब्य ब्रूयात्"-सिद्धिवि. टी., पृ० २८८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org