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उल्लिखित है, जयराशि भट्ट है। यह जयराशि किस वर्ण या जातिका था इसका कोई स्पष्ट प्रमाण ग्रन्थमें नहीं मिलता, परन्तु वह अपने नामके साथ जो 'भट्ट' विशेषण लगाता है उससे जान पड़ता है कि वह जातिसे ब्राह्मण होगा। यद्यपि ब्राह्मणसे भिन्न ऐसे जैन श्रादि अन्य विद्वानोंके नामके साथ भी कभी-कभी यह भट्ट विशेषण लगा हुआ देखा जाता है (यथा-भट्ट अकलंक इत्यादि); परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमें आए हुए जैन और बौद्ध मत विषयक निर्दय एवं कटाक्षयुक्त ' खण्डनके पढ़नेसे स्पष्ट हो जाता है कि यह जयराशि न जैन है और न बौद्ध । जैन और बौद्ध संप्रदायके इतिहासमें ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है, जिससे यह कहा जा सके, कि जैन और बौद्ध होते हुए भी अमुक विद्वान्ने अपने जैन या बौद्ध संप्रदायका समग्र भावसे विरोध किया हो। जैन
और बौद्ध सांप्रदायिक परंपराका बंधारण ही पहलेसे ऐसा रहा है, कि कोई विद्वान् अपनी परंपराका आमूल खण्डन करके वह फिर न अपनेको उस परंपरका अनुयायी कह सकता है और न उस परम्पराके अन्य अनुयायी ही उसे अपनी परम्पराका मान सकते हैं। ब्राह्मण संप्रदायका बंधारण इतना सख्त नहीं है । इस संप्रदायका कोई विद्वान्, अगर अपनी पैतृक ऐसी सभी वैदिक मान्यताओंका, अपना बुद्धिपाटव दिखानेके वास्ते अथवा अपनी वास्तविक मान्यताको प्रकट करनेके वास्ते, आमूल खण्डन करता है, तब भी, वह यदि आचारसे ब्राह्मण संप्रदायका प्रात्यन्तिक त्याग नहीं कर बैठता है, तो वैदिक मतानुयायी विशाल जनतामें उसका सामाजिक स्थान कभी नष्ट नहीं हो पाता । ब्राह्मण सम्प्रदायको प्रकृतिका, हमारा उपर्युक्त ख्याल अगर ठीक है, तो
१. बौद्धोंके लिए ये शब्द हैं
'तद्वालविलसितम्'-पृ. २६, पं० २६ । 'जडचेष्टितम्'- पृ० ३२, पं. ४। 'तदिदं महानुभावस्य दर्शनम् । न ह्यबालिश एवं वक्तुमुत्सहेत'-पृ० ३८, पं. १५ । 'तदेतन्मुग्धाभिधानं दुनोति मानसम्'-पृ० ३६, पं० १७.। 'तद्वालवल्गितम्'-पृ. ३६, पं० २३ । 'मुग्धबौद्धैः'-पृ. ४२, पं० २२ । 'तन्मुग्ध विलसितम्'-पृ० ५३, पं०६ । इत्यादि
तथा जैनोंके लिए ये शब्द हैं"इमामेव मूर्खतां दिगम्बराणामङ्गीकृत्य उक्तं सूत्रकारेण यथा
"नम ! श्रमणक ! दुर्बुद्धे ! कायक्लेशपरायण ! । जीविकार्थेऽपि चारम्भे केन स्वमसि शिक्षितः॥"
-पृ. ७६. पं० १५. ।
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