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ही परिणाम हैं। इस प्रकार समग्र तत्वोंका खण्डन करके चार्वाक मान्यताका पुनरुज्जीवन करना यह पहला उद्देश्य है । दूसरा उद्दश्य, ग्रन्थकारका यह जान पड़ता है, कि प्रस्तुत ग्रन्थके द्वारा अध्येतानोंको ऐसी शिक्षा देना, जिससे वे प्रतिवादियोंका मुँह बड़ी सरलतासे बन्द कर सकें। यद्यपि पहले उद्देश्यकी पूर्ण सफलता विवादास्पद है, पर दूसरे उद्देश्यकी सफलता असंदिग्ध है । ग्रन्थ इस ढंगसे और इतने जटिल विकल्पोंके जालसे बनाया गया है कि एक बार जिसने इसका अच्छी तरह अध्ययन कर लिया हो, और फिर वह जो प्रतिवादियोंके साथ विवाद करना चाहता हो, तो इस ग्रन्थमें प्रदर्शित शैलीके आधार पर सचमुच प्रतिवादीको क्षणभरमें चुप कर सकता है। इस दूसरे उद्देश्यकी सफलताके प्रमाण हमें इतिहासमें भी देखने को मिलते हैं। ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध जैनाचार्य शांतिसूरि-जो वादिवेतालके बिरुदसे सुप्रसिद्ध हैं-के साथ तत्त्वोपप्लवकी मददसे अर्थात् तत्त्वोपप्लव जैसे विकल्पजालकी मददसे चर्चा करनेवाले एक धर्म नामक विद्वानका सूचन, प्रभाचन्द्रसूरिने अपने 'प्रभावक चरित्र में किया है । बौद्ध और वैदिक सांप्रदायिक विद्वानोंने वाद-विवादमें या शास्त्ररचनामें, प्रस्तुत तत्त्वोपप्लवका उपयोग किया है या नहीं
और किया है तो कितना-इसके जाननेका अभी हमारे पास कोई साधन नहीं है; परन्तु जहाँ तक जैन संप्रदायका संबंध है, हमें कहना पड़ता है, कि क्या दिगम्बर-क्या श्वेताम्बर सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध जैन विद्वानोंने अपनी ग्रन्थरचनामें
और संगत हुआ तो शास्त्रार्थोंमें भी, तत्रोपप्लवका थोड़ा बहुत उपयोग अवश्य किया है । और यही खास कारण है कि यह ग्रन्थ अन्यत्र कहीं प्राप्त न होकर जैन ग्रन्थभंडारमें ही उपलब्ध हुआ है ।
संदर्भ-प्रस्तुत ग्रन्थका संदर्भ गद्यमय संस्कृतमें है। यद्यपि इसमें अन्य प्रन्थों के अनेक पद्यबन्ध अवतरण आते हैं, पर ग्रन्थकारकी कृतिरूपसे तो श्रादि
१. 'तदेवमुपप्लुतेष्वेव तत्त्वेषु अविचारितरमणीयाः सर्वे व्यवहारा घटन्त एव।' तथा-- 'पाखण्डखण्डनाभिज्ञा ज्ञानोदधिविवर्द्धिताः ।
___ जयराशेर्जयन्तीह विकल्या वादिजिष्णवः ॥' तत्वो० पु. १२५. २. सिंघी जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित, प्रभावकचरित, पृ. २२१-२२२ । प्रो. रसिकलाल परिख संपादित, काव्यानुशासनकी अँगरेजी प्रस्तावना, पृ. CXLVI; तथा तत्त्वोपप्लवकी प्रस्तावना पृ० ५।
३. अष्टसहस्री, सिद्धिविनिश्चय, न्यायमुकुदचन्द्र, सन्मतिटीका, स्याद्वादरत्नाकर, स्याद्वादमञ्जरी आदि ।
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