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न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा पूर्वोत्तरमीमांसक निर्विकल्पक और आलोचनमात्र कहते हैं । बौद्ध परम्परामें भी उसका निर्विकल्पक नाम प्रसिद्ध है । उक्त सभी दर्शन ऐसा मानते हैं कि ज्ञानव्यापारके उत्पत्तिक्रममें सर्वप्रथम ऐसे बोधका स्थान अनिवार्यरूपसे आता है जो ग्राह्य विषयके सन्मात्र स्वरूपको ग्रहण करे पर जिसमें कोई अंश विशेष्यविशेषणरूपसे भासित न हो । फिर भी १ मध्व और वल्लभकी दो वेदान्त परम्पराएँ और तीसरी भर्तृहरि और उसके पूर्ववर्ती शाब्दिकोंकी परम्परा ज्ञानव्यापारके उत्पत्तिक्रममें किसी भी प्रकारके सामान्यमात्र बोधका अस्तित्व स्वीकार नहीं करती। उक्त तीन परम्पराओंका मन्तव्य है कि ऐसा बोध कोई हो ही नहीं सकता जिसमें कोई न कोई विशेष भाषित न हो या जिसमें किसी भी प्रकारका विशेष्य-विशेषण संबन्ध भासित न हो । उनका कहना है कि प्राथमिकदशापन्न ज्ञान भी किसी न किसी विशेष को, चाहे वह विशेष स्थूल ही क्यों न हो, प्रकाशित करता ही है अतएव ज्ञानमात्र सविकल्पक हैं। निर्विकल्पकका मतलब इतना ही समझना चाहिए कि उसमें इतर ज्ञानोंकी अपेक्षा विशेष कम भासित होते हैं। ज्ञानमात्रको सविकल्पक माननेवाली उक्त तीन परम्पराओं में भी शाब्दिक परम्परा ही प्राचीन है । सम्भव है भर्तृहरिकी उस परम्पराको ही मध्व और वल्लभने अपनाया हो ।
२. लौकिकालौकिकता-निर्विकल्पका अस्तित्व माननेवाली सभी दार्शनिक परम्पराएँ लौकिक निर्विकल्प अर्थात् इन्द्रियसन्निकर्षजन्य निर्विकल्पको तो मानती हैं ही पर यहाँ प्रश्न है अलौकिक निर्विकल्पके अस्तित्व का। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराएँ ऐसे भी निर्विकल्पकको मानती हैं जो इन्द्रियसन्निकर्षके सिवाय भी योग या विशिष्टात्मशक्तिसे उत्पन्न होता है । बौद्ध परम्परामें ऐसा अलोकिक निर्विकल्पक योगिसंवेदनके नामसे प्रसिद्ध है जब कि जैन परम्परामें अवधिदर्शन और केवलदर्शनके नाम से प्रसिद्ध है। न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग और पूर्वोत्तरमीमांसक विविध कक्षावाले योगियोंका तथा उनके योगजन्य अलौकिक ज्ञानका अस्तित्व स्वीकार करते हैं अतएव उनके मतानुसार भी अलौकिक निर्विकल्पका अस्तित्व मान लेने में कुछ बाधक जान नहीं पड़ता। अगर यह धारणा ठीक है तो कहना होगा कि सभी निर्विकल्पकास्तित्ववादी सविकल्पक ज्ञानकी तरह निर्विकल्पक ज्ञानको भी लौकिक-अलौकिक रूपसे दो प्रकार का मानते हैं।
१. Indian Psychology: Perception. P. 52-54
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