________________
३८ | अप्पा सो परमप्पा
" कामदार से पूछो। मुझे कुछ भी पता नहीं हैं।" इसी प्रकार अज्ञानी मूर्ख जीव कहता है - " आत्मा का स्वरूप कैसा है ? यह हमें पता नहीं है; शास्त्रों से पूछो ।”
किसी भी वस्तु को नाम से जान लेना, एक बात है और वह वस्तु किस प्रकार की है ? उसका यथार्थ स्वरूप और असाधारण गुणधर्म (लक्षण) क्या है ? यह जानना और बात है । जो व्यक्ति आत्मा को यथार्थ रूप में न जानकर उलटे रूप में जान लेगा, वह परमात्मा बनने की दिशा में पुरुषार्थं न करके विपरीत दिशा में पुरुषार्थं करेगा । अगर वह यही जान जाएगा कि आत्मा तो सदा एक-सा ही रहता है, वह तो सदैव कुटस्थनित्य रहता है, उसमें कोई विकार या कर्तृत्व आदि नहीं होते, तब वह क्यों विकार को दूर करके, आत्मा को तप, संयम-त्याग आदि की साधना से शुद्ध करके परमात्मपद प्राप्त करने की दिशा में पुरुषार्थं करेगा ? इसलिए आत्मा से परमात्मा बनने के लिए उसके यथार्थ स्वरूप का बोध होना अनिवार्य है । यों तो आत्मा के अस्तित्व को सभी आस्तिक दर्शन एवं समस्त आत्मवादी धर्म-सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं, किन्तु उन दर्शनों और धर्म सम्प्रदायों में आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है । आत्मा का स्वरूप कोई दर्शन या धर्म-सम्प्रदाय कुछ बताता है, और कोई कुछ दूसरा ही राग अलापता है। कई दर्शन और सम्प्रदाय तो आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं । उनमें परस्पर समन्वय होना भी अत्यन्त दुष्कर है। हमें देखना यह है कि जैनदर्शन, जोकि आत्मा को परमात्मा के समान मानता है, आत्मा का कैसा स्वरूप बताता है ? जिससे उस स्वरूप को हृदयंगम करके मानव परमात्मा बनने की ओर गति प्रगति कर सके और एक दिन परमात्मपद प्राप्ति की अपनी अन्तिम मंजिल को उपलब्ध कर सके | इससे पूर्व अन्य दर्शनों का आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में मन्तव्य देकर फिर जैनदर्शन का मन्तव्य प्रस्तुत करेंगे ।
वेदान्तदर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप
आत्मवादी दार्शनिकों ने आत्मा के स्वरूप का भिन्न-भिन्न रूप से निरूपण किया है । भारतवर्ष के दर्शनों में वेदान्त दर्शन प्रमुख रहा है । वेदान्त दर्शन के मुख्य आधारभूत ग्रन्थ उपनिषद् हैं । उनमें 'आत्मा' के विषय में गहन चिन्तन संकलित है । वेदान्त के मतानुसार सारे संसार की मूल आत्मा एक है, जिसकी संज्ञा है - ब्रह्म । इस दृश्यमान जगत् में चेतन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org