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परमात्मा बनने का दायित्व : आत्मा पर | १३१
वीर्य (शक्ति) का स्रष्टा बन गया । वह परम अनन्त ऐश्वर्य को पा चुका । दूसरे जीवन्मुक्त परमात्मा हैं, वे अपनी आत्मा को सिद्ध परमात्मा के रूप में ढालने जा रहे हैं | आत्मगुणों के घातक चार घातिकर्मों को वे नष्ट कर चुके और चार अघाती कर्म शेष हैं, वे भवोपग्राही है, जब तक उनका आयुष्य कर्म बाकी हैं, तब तक वे शरीर से सम्बन्धित चार कर्म रहेंगे । इसलिए वे भी भासक सिद्ध - परमात्मा कहलाते हैं ।
तीसरे बद्ध परमात्मा हैं । शेष सभी संसारी जोव इसी कोटि के परमात्मा हैं । वे आठ ही कर्मों से बंधे हुए हैं। अपने सुख-दुःख के, अपने शुभाशुभ कर्मों के वे ही कर्त्ता हैं ।
इसीलिए जब भगवान् महावोर में पूछा गया कि क्या कोई निरंजननिराकार परमात्मा जगत् के जीवों के सुख-दुःख का कर्त्ता है या जीव (आत्मा) स्वयं ही अपने सुख-दुःख का स्रष्टा है ? तो उन्होंने स्पष्ट कहा - अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य
आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का कर्ता है और वही विकर्ता है - भोक्ता है ।
परमात्मा बनने का सारा दायित्व आत्मा पर
परमात्मा कोई संसार बनाने की या दूसरों को सुखी-दुःखी बनाने की लीला नहीं कर रहा है । यह सब खेल तुम्हारा है; सारी बाजी अपनी आत्मा के हाथ में है । तुम्हारी अपनी जिम्मेवारी है कि तुम्हें सुखी बनना है या दुःखी बनना है । तुम्हारे परमात्मा तुम स्वयं हो। तुम्हारी परमात्मत्व पाने की जैसी दृष्टि होगी, वैसी ही तुम्हारी सृष्टि होगी । परमात्मा असल में तुम्हारी ही छवि है । तुम जैसे बन रहे हो वैसा हो तुम्हारा परमात्मा बनेगा । तुम्हीं अपने शुभाशुभ कर्मों को बाँधने, भोगने और काटने के लिए उत्तरदायी हो, तुम्हीं जिम्मेवार हो, अपने सुख-दुःखों के लिए | अगर तुम्हें सुखी - आत्मिक सुख से सम्पन्न बनना है तो उस सुख की नींवें रखनी होंगी, आत्मिक आनन्द के बाधक तत्त्वों से स्वयं को दूर रखना होगा, सांसारिक सुख-दुःख दोनों के पार जाना होगा । अपनी नैया तुम्हें ही पार करनी होगी। तभी तुम पूर्ण परमात्मा की कोटि में पहुँच
१ उत्तरा. अ० २०, गा. ३७
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