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३४४ | अप्पा सो परमप्पा
शक्ति-भण्डार असीम है, फिर भी नगण्य सा दीखने वाला परमाणु भी कम नहीं है । जितनी शक्ति विस्तृत स्थिति वाले विशालकाय सूर्य में है, उतनी ही शक्ति छोटी-सी स्थिति वाले लघुकाय परमाणु में है । इसलिए साधक की आत्मा अभी चाहे छोटी स्थिति में हो, मूल में तो उसमें भी अनन्तशक्ति छिपी हुई है । तुच्छता से महानता में विकसित होने में मुख्य बाधा तो परमात्मभावों से दृढ़तापूर्वक भावित होने की है।
जनस्वरूप होकर जिनाराधना से जिन परमात्मा
इसीलिए योगीश्वर आनन्दघनजी आत्मार्थी साधकों को उद्बोधन करते हुए कहते हैं
"जिनस्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे । भृंगी ईलिका ने चटकावे, ते भृंगी जग जोवे रे || "
रागादि की मन्दता करके आत्मा यदि वीतरागदशा से अपने आपको भावित करे तो वह जिनवर ( वीतराग परमात्मा) हो सकता है । वही जिनवर की सही आराधना है | दर्शनशास्त्र में कीट- भ्रमर-न्याय प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि भ्रमरी पहले मिट्टी का घरौंदा बनाती है । फिर हरे घास में से एक ईलिका ( लट) को ले आती है । उसके डंक मारकर अपने बनाये हुए घरौंदे में उसे डाल देती है । तत्पश्चात् वह भ्रमरी उस मिट्टी के घरौंदे के आस-पास कई दिनों तक गुंजार करती रहती है । वह ईलिका (लट) भ्रमरी के डंक की वेदना से दुःखित होती है, किन्तु भ्रमरी के मधुर गुंजार में मोहित होकर वेदना उतनी महसूस नहीं करती। उस असह्य पीड़ा से पीड़ित वह लट भ्रमरी के गुंजार के मोहभाव में मरती है । अतः भ्रमरी के भाव से स्वयं भावित होने के कारण वह लट मरकर उसी मिट्टी के घरौंदे में भ्रमरी के रूप में उत्पन्न होती है ।
इसी न्याय से साधक की आत्मा जिन ( वीतराग परमात्मा ) स्वरूप में मग्न होकर जिनवर की आराधना - भावना करे तो वह भी निःसन्देह जिनवर हो जाता है ।
देव होकर ही देव की पूजा हो सकती है
भगवद्गीता में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है
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