Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 376
________________ हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३६१ उसने शुभ भावनावश अतिथियों और पथिकों के विश्राम करने तथा जलपान करने के लिए एवं नागरिकों के स्वास्थ्यलाभ के लिए राजगृहीनगरी के बाहर पथिकशाला, व्यायामशाला, विश्रामगृह आदि बनवाए और मधुरशीतल जल संचय के लिए एक वापिका भी बनाई। यहाँ तक तो ठीक था, किन्तु एक बार पौषधोपवास में उसे अत्यन्त प्यास लगी और सुखशील जीवन बिताने की भावना जगी। पौषधोपवास के समय तो समस्त सावद्ययोग (पापमयीप्रवृत्तियों) का तथा अन्न-जल का भी त्याग होता है, फिर भी उसकी अपनी बाबड़ी आदि पर आसक्ति हुई, अपनी बावड़ी का पानी पीने की तीव्र लालसा जगी। उसके पश्चात् श्रावक के कठोर व्रत-नियमों के पालन में शिथिलता आने लगी। फलतः फलासक्ति एवं सुखसुविधासक्ति की भावनाओं में मरकर वह अपने द्वारा निर्मित बावड़ी में ही तियञ्यपंचेन्द्रिय मेंढक के रूप में उत्पन्न हुआ। पूर्वजन्म के संस्कारवश वह अपने द्वारा निर्मित वापिका, पथिकशाला आदि पर आसक्ति रखने लगा, अपनी प्रशंसा प्रसिद्धि और नामबरी के श्रवण के लिए तीव्र उत्सुक हो गया। श्रावकव्रत तो उसके भंग हो ही गये थे। अतः मिथ्यात्व, अज्ञान और मोह के प्रचुर अन्धकार के कारण उसके हृदय के द्वार बन्द हो गए। किन्तु एक बार पूर्वजन्म के इस नन्दनमणिहार दर्दुर ने श्रमण भगवान् महावीर के राजगृही में पदार्पण से समाचार सुने। पूर्वजन्म के संस्कार उबुद्ध हुए। ऊहापोह करते-करते पूर्वजन्म की स्मृति हो आई । अपने उत्तम श्रावकजीवन को पुनः अपनाने और आत्मशुद्धि करने की तीव्रभावना जगी। उसके हृदय के बन्द द्वार खुल गए। उत्तम भावना से प्रेरित होकर वह फुदकता-फुदकता भगवान् महावीर के दर्शन-श्रवण के लिए जा रहा था, किन्तु मार्ग में ही श्रेणिक राजा के घोड़े की टाप से बेचारे मेंढक का शरीर कुचल जाने से वहीं उसका प्राणान्त हो गया। हृदयपट खुले होने से अन्तिम समय में शुभभावों में मरकर वह दर्दुरान्तक देव बना। यह था तिर्यंचपंचेन्द्रिय के हृदय-पट खुल जाने का परिणाम ! मनुष्यों में भी जो नर-नारी सुलभबोधि, आत्मा-परमात्मा के प्रति श्रद्धालु परमात्मा के सन्देश को सनने के लिए उत्सुक, सम्यग्दृष्टि या जागरूक होते हैं, जिनका हृदय सरल, निश्छल, निष्काम, निःस्पृह, मन्दकषायी, मन्दविकारी एवं निष्पाप होता है. उनके हृदय के भावपट खुले रहते हैं या खुल जाते हैं । वे परमात्मा का दिव्यसन्देश या अन्तःप्रेरणा स्फुरण आदि ग्रहण एवं श्रवण करने के योग्य होते हैं । परन्तु जब वे प्रभु के दिव्य अमर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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