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३७२ | अप्पा सो परमप्पा
रहते हैं । उनसे मेरी कोई भी वृत्ति-प्रवृत्ति छिपी नहीं रहती। वह सब कुछ जानते-देखते हैं। अतः हृदय में जरा भी छल-कपट, काम, क्रोधाधि विकार उत्पन्न होते ही वह तुरन्त सँभल जायेगा और उस पापकर्म से विरत हो जाएगा कि मैं इस पापकर्म का आचरण कैसे कर सकता है। जिसे परमात्मा की ज्ञान दृष्टि से व्यापकता की प्रतीति हो जाती है, वह अपने अन्तर् में प्रभु को सन्निकट समझ कर ऐसी ही प्रवृत्ति करता है, जिसमें पापकर्म का अंश न हो।
ज्ञान का प्रकाशपंज परमात्मा साधक के हृदय-सिंहासन पर विराजमान रहता है। इसलिए ज्ञानमय प्रभ के सान्निध्य से साधक को बन्ध, निर्जरा, मोक्ष का, आस्रव और संवर का, तथा इनके कारणों का यथार्थ ज्ञान होना ही चाहिए। यदि वह अज्ञान, अन्धविश्वास, संशय, विपर्यय, भ्रान्ति, प्रमाद, अनध्यवसाय (अनिश्चय) आदि को साथ में रखेगा तो अज्ञानमग्न होकर संसार में भटकेगा । अज्ञान के कारण उसके सभी कार्य विपरीत होंगे। सम्यग्ज्ञान न होने पर साधक की जीवननैया पुनः संसार सागर में डूब जाएगी। अतः आत्मार्थी साधक एक ओर से विशुद्ध ज्ञानमय परमात्मा को हृदय में विराजमान करके आत्मा को ज्ञानालोक से प्रकाशित करता है; तथैव दूसरी ओर से ज्ञान को आवृत करने वाले ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के जितने भी कारण हैं, उन्हें दूर करके सम्यग्ज्ञान वृद्धि के लिए पुरुषार्थ करता है।
परमात्मा की ज्ञानज्योति पाकर साधक उदात्त चिन्तन, एवं विश्वहित पर मनन करता है, विश्व के सभी प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य भावना बढ़ाता है। विश्व मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावनाओं के माध्यम से हृदय में विश्वकल्याण की उदार भावना और प्रवृत्तियाँ संजोता है। मैं सारे विश्व का हूँ, सारा विश्व मेरा है, सभी प्राणियों की आत्मा मेरे ही समान सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय का संवेदन करती हैं। ऐसे साधक के मन से आसक्ति, मोह, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, अहंता-ममता आदि दुर्भावों का विष निकल जाता है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं विश्ववत्सल, परमात्मा बन सकता है। इस उदार एवं व्यापक मान्यता और विशाल बोध से उसका अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा असीम एवं व्यापक बनता है ।
साध्यप्राप्ति के लिए आत्मशक्ति भी आवश्यक रेलगाड़ी को लोहे की पटरी पर दौड़ाने के लिए केवल रेलगाड़ी, उसके चालक की इच्छा और नियन्त्रण-कुशलता ही पर्याप्त नहीं होती।
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