________________
३७८ अप्पा सो परमप्पा
(परमात्म प्राप्ति के लिए तो यह अनिवार्य शर्त है कि वहाँ न तो द्रव्यकर्मभावकर्म साथ जा सकते हैं, न ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि या रागद्वेष आदि विभाव या सजीव निर्जीव कोई भी परभाव साथ में जा सकते हैं। और मुक्ति या परमात्मभाव की प्राप्ति तो यहीं मनुष्यलोक में ही हो जाती है । उसी नर-नारी को परमात्मभाव की प्राप्ति होती है, जिसकी आत्मा परभावों और विभावों की भीड़ साथ में न लिये हुए हो। व्यवहारदृष्टि से आत्मा का अकेलापन
तात्पर्य यह है कि आत्म का अकेलापन दो प्रकार से होता है-एक व्यवहारदृष्टि से, दूसरा निश्चयदृष्टि से। व्यवहारदृष्टि से आत्मा के अकेलेपन =एकत्व का चिन्तन 'बारस अणवेवखा' में इस प्रकार का मिलता है
एक्को करेदि कम्म, एक्को हिंदि य दीह-संसारे ।
एक्को जायदि मरदि, तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥१४।। यह आत्मा अकेला ही शुभ-अशुभ (पुण्य-पाप) कर्म बांधता है, और अकेला ही इस अनादिकालीन दीर्घ संसार (जन्म-मरण रूप) में अपनेअपने शुभाशुभकर्मानुसार विविध योनियों और गतियों में परिभ्रमण करता है । वह अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है । अकेला ही कर्मों का फल भोगता है।"
परन्तु इस भौतिकवादी युग में वैज्ञानिक सुख-साधनों से सम्पन्न लोग व्यवहार दृष्टि से स्वयं को अकेला महसूस नहीं करते हैं। वे अकेलेपन में सुख-शान्ति की कल्पना नहीं करते, वे कहते हैं-हम अपने बीच अपने माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, कुटुम्ब-कबीले एवं समाज के लोगों को पाकर खुश हैं, सुखी हैं। वे हमारे सहयोगी हैं, हम उनके। परन्तु क्या सचमुच वे अनेक के साथ होकर सुखी हैं, निश्चिन्त हैं ? जिन पचास लोगों को वे अपने साथ मानते हैं, क्या वे उसके दुःख, संकट, बीमारी आदि में हिस्सा बँटा सकते हैं । क्या वे मृत्यु से उनकी रक्षा कर सकते हैं। या परलोक में भी उनके साथ जा सकते हैं ? पूर्वजन्मकृत अशुभ कर्मों के उदय में अपाने पर क्या परिवार,जाति या समाज वाले उसके कटु फल भोगने में हिस्सा बंटा सकते हैं ? मध्यम वर्ग में तो प्रायः घर का मुखिया ही अकेला सारे परिवार की चिन्ता करता है। लड़के-लड़कियों की शिक्षा, संस्कार,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org