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३८४ | अप्पा सो परमप्पा भी किसी भी परभाव की याचना, प्रार्थना या दीनतापूर्वक माँग नहीं करता।
संघ, परिवार या गण आदि की सहायता का त्याग करने वाले आत्मैकत्व में अभ्यस्त साधक की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं
"सहायक के प्रत्याख्यान (त्याग) से साधक एकीभाव-आत्मैकत्व को प्राप्त होता है। जब एकत्व भावना से भावित होकर साधक एकमात्र आत्मावलम्बन कर लेता है, तब वह बहुत ही कम बोलता है, उसका व्यर्थ बोलना बन्द हो जाता है, झंझट, कलह, मनमुटाव, बकवास, विवाद आदि भी प्रायः नामशेष हो जाते हैं। कषाय मन्द हो जाते हैं। तू-तू-मैं-मैं (तूने ऐसा किया, वैसा किया इत्यादि वाक्कलह) भी समाप्त हो जाता है । उस साधक का जीवन १७ प्रकार के संयम से ओतप्रोत हो जाता है, वह अधिकतर संवर (आते हुए नये कर्मों का निरोध) कर लेता है। फिर वह एकमात्र अपनी आत्मा में ही समाहित (आत्मसमाधिस्थ) ही जाता है। और अपनी आत्मा में ही डूब जाता है।"1
वस्तुतः आत्मा के साथ एकत्व के इस प्रकार के अभ्यास से साधक स्वयं को सिर्फ एकाकी मानता और जानता है । वह दूसरे से सहायता या सहयोग की अपेक्षा नहीं रखता। सहजभाव से जो कुछ सहायता या सहयोग मिल गया उसी में सन्तुष्ट एवं निरपेक्ष रहता है। दूसरों से सहयोग, साहचर्य और सहायता लेने की आदत मनुष्य को पंगु, परमुखापेक्षी, परनिर्भर एवं पराधीन बनाती है। वह हमेशा दूसरों का मुख ताकता रहता है। इसके विपरीत परपदार्थों या पर-व्यक्तियों के सहयोग की अपेक्षा न रखने से मनुष्य आत्मनिर्भर, स्वावलम्बी और स्वाश्रयी बनता है । अकेलेपन से व्यक्ति में निर्भयता की शक्ति का संचार होता है। इस सम्बन्ध में 'सेंटजोन' का कहना है-'यह मत समझो कि तुम मुझे यह कह कर डरा सकोगे कि तुम अकेले हो। फांस अकेला, पृथ्वी अकेली है,
१. सहाय-पच्चवखाणेणं एगीभाव जणयइ । एगीभावभूए वि य णं जीवे एगत्त
भावेमाणे अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पकलहे, अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे, संजयबहुले संवर-बहुले समाहिए या वि भबइ ।
- उत्तराध्ययन सूत्र अ. २६/३६
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