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एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३६३ ज्ञान के सिवाय और कुछ है ही नहीं। केवल शब्द तीन अर्थों में यहाँ प्रयुक्त होता है- शुद्ध, अकेला और परिपूर्ण । जब साधक केवलज्ञान से युक्त शुद्ध आत्मवान् हो जाता है, तब वह नितान्त ज्ञान ही करता है, उसके साथ किसी प्रकार का संवेदन नहीं करता। जब ज्ञान के साथ सेवेदन का रंग नहीं मिश्रित किया जाता, तब कोरा (एकान्त एकमात्र) ज्ञान केवलज्ञान होता है। यही ज्ञान शुद्ध होता है, शुद्ध उपयोगमय होता है। इस प्रकार आत्मा के साथ ही केवलज्ञान का अकेला, शुद्ध और परिपूर्ण अर्थ घटित होता है, अन्य बाह्य पदार्थों के साथ नहीं।
निश्चयदृष्टि से आत्मा के साथ एकत्वभाव कैसे साधे ? जिस साधक को निश्चयदृष्टि से एकत्वभाव साधना है, उसे परभावों के प्रति मोह का उन्मूलन करने के लिए ज्ञानसार के अनुसार निम्न प्रकार से चिन्तन एवं स्वरूपध्यान करना चाहिए ।
"शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं शुद्धज्ञानं गुणो मम ।
नान्योऽहं न ममाऽन्ये, चेत्यदो मोहास्त्रमुल्बणम् ॥1 अर्थात्-मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ, शुद्ध ज्ञान मेरा गुण है। न तो मैं परपदार्थों का हूँ, न ही परपदार्थ मेरे हैं। परपदार्थों के प्रति मोह को नष्ट करने वाला यह तीव्र अस्त्र है।
इसी प्रकार दशवकालिक सूत्र में भी परपदार्थों-मनोज्ञ पदार्थों के प्रति राग (मोह) को नष्ट करने के लिए निषेधात्मक चिन्तन बताया गया है
'समाए पेहाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरइ बहिद्धा । न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्जरागं ॥2
समत्वयोग की पगडंडी पर प्रेक्षापूर्वक विवरण करते हुए भी साधक का मन कदाचित् आत्मभाव से बाहर (परभावों में) निकलने लगे तो वह आत्मत्राता, इस प्रकार का अन्तर से चिन्तन करते हुए रागभाव को दूर करे कि वह (स्त्री आदि परवस्तु) मेरी नहीं है, और न ही मैं उसका हूँ। ज्ञानार्णव में भी आत्मा पर छा जाने वाले मोहादि के कोहरे को दूर करने
१ 'ज्ञानसार' मोहत्यागाष्टक श्लो. २ २ दशवकालिकसूत्र अ. २, गा. ४ ३ मुनेर्य दिमनोमोहाद् रागाद्यैरभिभूयते ।
तनियोज्यात्मनस्तत्वे तानेव क्षिपति क्षणान् । -ज्ञानार्णव सर्ग ३२ श्लो. ५१
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