Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 409
________________ ३६४ | अप्पा सो परमप्पा के लिए तात्कालिक उपाय बताया है- मन को तत्काल आत्मतत्व में लगाने का । भगवद्गीता में इससे भी आगे बढ़कर स्पष्ट व्यावहारिक उपाय बताया है - " अन्तर्मुख होकर मन को धीरे-धीरे आत्मा में - आत्मचिन्तन में स्थापित करना और अन्य कुछ भी चिन्तन न करना । जब-जब चंचल मन आत्मा से बाहर जाए, तब-तब तुरन्त उसे वहाँ से मोड़कर बार-बार आत्मा में ही लाकर आत्माधीन कर देना चाहिए | द्रव्यसंग्रह की टीका में निश्चयदृष्टि से आत्मैकत्व साधने का उपाय बताया है कि " निश्चय से आत्मा का सहज स्वाभाविक शरीर एकमात्र केवलज्ञान ही है । सप्तधातुमय यह औदारिक शरीर नहीं । निज आत्मतत्व या निज आत्मगुण ही एकमात्र सदा शश्वत एवं परम हितैषी परिवार है, पुत्र कलत्र आदि नहीं । स्व शुद्धात्म पदार्थ ही एकमात्र अविनाशी परम हितकर परमधन है, स्वर्णादिरूप धन नहीं । अकेला निजात्मसुख ही एकमात्र वास्तविक सुख है, आकुलता - उत्पादक इन्द्रिय विषय - जन्य सुख नहीं । अकेला स्व- शुद्धात्मा ही अपना सहायक, त्राता उद्धारक है । इस विधि से शुद्धात्मा के साथ ही निरन्तर एकत्व साधना चाहिए । इस प्रकार 'शुद्धात्मा का सततु अनुसन्धान परमात्मसमापत्ति का हेतु है ।' निश्चयदृष्टि से आत्मा के साथ एकत्व साधक की कसौटी आत्मार्थी साधक जब इस प्रकार निश्चयदृष्टि से आत्मा के साथ १ शनैः शनैरुपरमेद् बुद्धया धृतिगृहीतया । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि स्मरेत् ॥ यतो यतो निश्चरति मनः चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ - भगवद्गीता अ. ६/२५-२६ २ निश्चयेन केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम; न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम् |'''' निजात्मतत्त्वमेवैकं सदाशाश्वतं परमहितकारि, न च पुत्रकलत्रादि । स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाऽविनश्वर हितकारी परमोऽर्थः न च सुवर्णाद्यर्थाः । स्वभावात्मसुखमेवैकं सुखं; न चाकुलत्वादिन्द्रियसुखम् । स्वशुद्धात्मकः सहायीभवति । एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं शुद्धात्मकभावना कर्त्तव्या । - द्रव्यसंग्रह टीका ४३ / १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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