Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 413
________________ ३६८ | अप्पा सो परमप्पा व्यक्ति सन्त के पास आया और सन्त को चिढ़ाने के लिए लगा प्रश्न पर प्रश्न पूछने । सन्त जो उत्तर देते, वह उसे समझना तो था नहीं, उसका मन हठाग्रह, द्वष और व्यर्थ-विवाद से भरा था। फिर भी संत उसे शान्तभाव से उत्तर देते रहे । किन्तु वह अपने ही हठ पर अड़ा रहा । सन्त परेशान हो गये। किन्तु वह सन्त को बार-बार ऊटपटांग पूछकर छेड़ता रहा । सन्त उत्तेजना में आ गए। वे ज्ञान-ज्योतिर्मय शुद्ध आत्मा के साथ एकत्व को भूलकर क्रोध, आवेश और अहंकार (विभावों) के साथ एकत्व जोड़ बैठे। आत्म भाव में टिके रहने की परिपक्व निष्ठा न होने से संत ने झल्लाकर कहा-"तुम अपना हठाग्रह छोड़कर समझना ही नहीं चाहते । निकल जाओ यहाँ से !" सन्त ने उसे धक्का देकर बाहर निकलवा दिया। किन्तु बाद में सन्त को अपनी गलती पर बहत पश्चात्ताप हुआ। लेकिन अब तो तीर छूट चुका था। रात को ध्यान में बैठे-बैठे सन्त को अन्तः स्फुरणा हुई-"तुम उस व्यक्ति को निकालकर आत्मैकत्व की साधना से विचलित हो गए । माना कि वह दुराग्रही और कुतर्की था, लेकिन तुम्हें तो अपनी आत्मा की शुद्धता नहीं खोनी थी ? शुद्ध आत्मा होकर तुम क्रोधादि से अशुद्ध हो गए। शुद्ध आत्मभावों में स्थिर रहने के बजाय अनात्मभावों में बह गए। अपनी की-कराई शुद्ध आत्मा के साथ एकत्व की साधना मिट्टी में मिला दी।" सन्त ने मन ही मन परमात्मा से क्षमा माँगी, भविष्य में ऐसी गलती न करने का संकल्प किया। आत्मा के साथ एकत्व साधक की तीसरी कसौटी है-ज्ञानमयता। आत्मा अपने-आप में ज्ञानस्वरूप है । स्वभाव और परभाव का, आत्मगुणों का और परपदार्थों के गुणों का, आत्मस्वरूप और परस्वरूप का भेदविज्ञान करना ही वास्तव में सम्यग्ज्ञान है। आत्म-बाह्य पदार्थों के साथ एकत्व है ही नहीं, आत्मा के गुण और बाह्यपदार्थों के गुणों में रात-दिन का अन्तर है। फिर भी बाह्यपदार्थों अर्थात्-परभावों और विभावों के प्रति मोह, राग, ममत्व, मूर्छा, आसक्ति आदि रखना, अन्तर में उन्हें अपने मानना उन पर मेरेपन की छाप लगाना, ईर्ष्या, द्वष, छल, आदि करना अपनी ज्ञानमय आत्मा की भूल है, अज्ञानता है । वह कसौटी होने पर शुद्ध आत्मा को अज्ञान में लिपटाना आत्मार्थी साधक की हार है। उसे अपने हृदय में यह अंकित कर लेना चाहिए कि जब उसे भेदविज्ञान की इतनी उच्च भूमिका प्राप्त हो गई है, भेदविज्ञान की निष्ठा भी परिपक्व हो गई है, तब अपनी आत्मा को एकमात्र अपनी मानकर उसी के साथ एकत्व स्थापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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