________________
३८२ | अप्पा सो परमप्पा
1
।
1
व्यथित थे । स्वयं नमिराज भी इस पीड़ा से व्याकुल हो रहे थे इतने बड़े परिवार के साथ होते भी वे स्वयं को असहाय महसूस कर रहे थे । कोई भी उनकी इस पीड़ा को शान्त न कर सका । एक अनुभवी वैद्य ने शरीर पर बावना चन्दन घिस कर लगाने का सुझाव दिया। सभी रानियाँ चंदन घिसने में लगीं । चंदन घिसते समय उनके हाथों में पहनी हुई चूड़ियों के खनकने की आवाज अत्यधिक असह्य महसूस होने लगी । अतः उन्होंने इस आवाज को बन्द करने की सख्त हिदायत दी । रानियों से कहा गया तो उन्होंने अपने हाथों में एक-एक चूड़ी सौभाग्य चिन्हस्वरूप रखकर शेष चूड़ियाँ उतार दीं। और फिर चंदन घिसने लगीं। अनेक चूड़ियों के परस्पर टकराने से जो आवाज होती थी, वह अब बन्द हो गई ।
नमिराज ने कहा -- अब आवाज नहीं हो रही है, क्या चन्दन घिसना बन्द हो गया ?
उत्तर मिला -- महाराज ! चन्दन घिसना बन्द नहीं हुआ है, किन्तु रानियों ने पहले अनेक चूड़ियाँ पहन रखी थीं, उनके परस्पर टकराने से आवाज होती थी, अब उन्होंने अपने हाथों में सिर्फ एक-एक चूड़ी पहन रखी है, इस कारण आवाज नहीं हो रही है ।
इसी पर नमिराज के अन्तर् में चिन्तन की चिनगारी प्रकट हुई" अनेक होने से संघर्ष होता है, एक होने से संघर्ष नहीं होता। मैं भी शरीरादि अनेक के साथ अपने को मानता हूँ इसी कारण संघर्ष, भय, चिन्ता, व्यग्रता, अशान्ति, विकृति आदि होती हैं । मेरी आत्मा अकेली ही आयी थी, अकेली ही जाएगी, वही शुद्ध नित्य एवं ज्ञानमय है । मैं व्यर्थ ही अनेक के साथ मोहजनित सम्पर्क करके संघर्ष और खतरा मोल ले बैठा । इसी कारण शरीर सम्बन्धी इस रोग के कारण मुझे उद्विग्नता, एवं चिन्ता होती है । अतः अब मुझे इन सबके प्रति एकत्व- ममत्व छोड़कर केवल आत्मा के साथ ही एकत्व साधने का अभ्यास करना चाहिए ।" बस, थोड़ी ही देर में इस एकत्व भावना के कारण वे आत्मानन्द में लीन हो गए । उनकी व्याधि, चिन्ता, अशान्ति और व्याकुलता भी समाप्त हो गई ।
उन्हें अच्छी नींद आई । प्रातःकाल स्वस्थ होकर उठे तो उन्होंने अपना एकाकी बनने का - आत्मा के साथ एकत्व साधने का निश्चय सुना दिया । इस प्रकार नमिराजर्षि ने स्वयं एकाकी, लम्बी बनकर अपनी साधना की और अन्त में प्राप्त किया । यह थी आत्मा के साथ शुद्ध एकत्व की उपलब्धि !
स्वाश्रयी एवं आत्मावपरमात्मपद (मोक्ष) को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org