Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 396
________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३८१ अखरा नहीं । विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 'गीतांजलि' में जीवन में एकाकी विचरण पर बहुत ही सुन्दर प्रेरणात्मक कविता लिखी है 'जदि तोर डाक सुनिया, केउ ना आसे । तोने तुमि एकला चलो रे, एकला चलो रे॥" यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई भी तुम्हारे साथ चलने को न आए तो तुम स्वयं अकेले चलो, अकेले ही अपने स्वीकृत पथ पर प्रयाण करो। ऐसा कभी मत सोचो कि तुम अकेले हो। भले ही बाहर से तुम अकेले दिखते हो, परन्तु यदि अन्तर् में तुम्हें अपनी आत्मा और परमात्मा पर विश्वास है तो बड़ी-बड़ी मुसीबतों, कष्टों, उलझनों और संकटों को तुम हंसते-हसते पार कर सकोगे । वस्तुतः एकाकीपन त्रासदायक या दुःखो-. त्पादक नहीं है, बल्कि अकेलेपन से व्यक्ति शान्ति, निश्चितता एवं संघर्षरहित निर्भय जीवन जीता है। उपनिषद् में बताया है--'द्वितीयादव भयं भवति' दूसरा होने से अन्तर् में प्रायः भय और आशंका ही पैदा होती है। आत्मकत्वभावना से शान्ति और समाधि जो आत्मार्थी साधक शूद्ध आत्मा के अकेलेपन-एकत्व का अभ्यास करते हैं, साधना करते हैं, उन्हें निश्चितता , शान्ति, समाधि और निरोगता प्राप्त होती है । इस विषय में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत है, आचार्य अमितगति का यह श्लोक 'आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शन-ज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र-तत्र, स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ॥" जब तू अपने आप में अपने (आत्मा) को देखता है, तब तू दर्शनज्ञानमय एवं पूर्ण विशुद्ध हो जाता है । जो साधक जहाँ कहीं एकाग्रचित्त होकर अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है, वह अवश्य ही समाधिभाव (आत्मसमाधि) को प्राप्त कर लेता है । इस सम्बन्ध में नमिराजर्षि के जीवन की एक घटना बहुत ही बोधप्रद है। एक बार वे दाहज्वर से पीड़ित हो गये थे। सारे शरीर में आग जलने की-सी असह्य पीड़ा हो गई थी। राजपरिवार के सभी लोग चिन्तित १ सामायिक पाठ श्लो. २५ २ उत्तराध्ययन सूत्र अ. ६ (नपिपव्वज्जा) में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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