Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 389
________________ ३७४ | अप्पा सो परमप्पा मुनि ऋषि, नरेन्द्र, देवेन्द्र, वेद, पुराण एवं धर्मशास्त्र एक स्वर से स्तोत्र, जप, स्मरण, भक्तिगीत आदि द्वारा हृदय में विराजमान होने की प्रार्थना कहते हैं । हृदय स्थित परमात्मा परमात्मभाव (मोक्ष) के तटस्थ मार्गदर्शक भी, तटस्थ तारक और साथी भी अव्यक्त रूप से बन सकते हैं, बशर्ते कि आत्मार्थी की स्वयं उस मार्ग पर चलने तथा संसारसागर को पार करने की उत्कण्ठा हो । उसके लिए यथाशक्ति पुरुषार्थ करने में वह जरा भी हिचकिचाता न हो। इसी दृष्टि से वीतराग परमात्मा को 'मग्गदयागं,' 'तिन्नाणं तारयाणं' तथा 'मुत्ताणं मोयगाणं" कहा गया है । आचार्य सिद्धसेन ने बहुत सुन्दर युक्ति द्वारा इस तथ्य को समझाया है त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा हतिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ हे वीतराग प्रभो ! आप भव्यजीवों के कैसे तारक ( तारते ) हैं ? हमने आपको तारते हुए प्रत्यक्ष तो कभी नहीं देखा, कि आप किसी को हाथ पकड़ कर तार रहे हैं । भव्यजीव ही आपको हृदय में धारण करके संसार-सांगर से तर जाते हैं । इस दृष्टि से आप तटस्थ तारक अवश्य हैं । जैसे - मशक पानी पर तैरती है, उसके पीछे उसके अन्दर भरी हुई हवा का ही प्रभाव होता है । इसी दृष्टि से परमात्माको मुक्ति (परमात्मप्राप्ति ) - मार्ग का प्रतिपादक कहा है, प्रापक या दायक नहीं । परमात्मप्राप्ति मार्ग प्रतिपादक है, प्रदर्शक हैं, परमात्मप्राप्ति (मुक्ति) के मार्ग पर चलना और प्रगति करना बड़ी टेढ़ी खीर है । तलवार की धार पर चलने के समान दुर्गम है । ऐसे समय अन्तःस्थित परमात्मा यदि मार्ग-दर्शक साथी होता है, तो साधक को राग, द्व ेष, मोह, कषाय आदि मुक्ति-विरोधी, शुद्ध-आत्मभाव के प्रतिबन्धक शत्रुओं के साथ जूझने में कोई थकान, निराशा एवं १ यः स्मर्यते सर्व मुनीद्रवृन्दैर्यः स्तूयते सर्व-नरामरेन्द्रः । यो गीयते वेद-पुराण-शास्त्रः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ २ देखें, शक्रस्तव ( नमोऽत्थुणं) का पाठ ३ कल्याणमन्दिर स्तोत्र, काव्य - १० Jain Education International - सामायिक पाठ श्लोक १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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